Tuesday, 21 February 2017


……..गुरू मेरो जोगी निराला…
… गुरू और शिष्य का सत्य
अधिकतर लोग मुझसे कहते है…कि निखिल जी हमें…किसी योग्य गुरू का पता बता तो…पर…यह बात कहना शोभा….है…उनको…क्योंकि जो स्वयं ही गुरू का तयन नहीं कर सकता …स्वयं यात्रा पर नही चल सकता है…उसे गुरू प्राप्त होने के बाद ही वह सही कहेगा..कि …..यह गुरू मुझे योग्य नहीं लगा…और मन केवल संशय और संशय ही उसकी यात्रा में बाधा बनकर उभरता रहता…खडा रहता है….इसलिए मेरे तंत्र प्रेमियों….मेरे प्राण प्रिय आत्मनों…मेरे तंत्र सहयोगियो….व मित्रो….गुरू का चयन तुम्हे करना है…वहां तक पहुंचने का मार्ग स्वयं प्रशस्त करना है….तुम्हे…इसलिए तुम यह कार्य किसी पर मत थोपो….मत डालो…स्वयं करो…और सत्य को अनुभव करो…दुसरे के अनुभव को सुनकर तुम अनुभव नही कर सकते है..नही दान सकते है..उसकी भुमिका व कठिनाईयो…को….जब तक स्वयं नहीं करेंगे..तब तक मात्र तुम जडमत ही बने रहेंगे….
सबसे महत्वपूर्ण तथ्य. ..यह है कि… गुरू का चुनाव शिष्य नहीं कर सकता है… क्योंकि शिष्य केवल अपनी बुद्धि के अनुसार ही चयन करते हो… क्योंकि तुम्हारी चेतना उस तत्व को नहीं पहचान सकती है… नहीं जान सकती है. ….क्योंकि गुरू को जानना, पहचानना कोई सरल कार्य नहीं है.. क्योंकि गुरू एक तत्व है… कोई शरीर का पुर्जा नहीं… यह तुम्हारी गलती है… कि तुम गुरू को केवल शरीर मान लेते हो…
गुरू और शिष्य बनाये नहीं जाते है.. वे तो केवल समर्पण से ही बन जाते है… और गुरू की चयन करता है शिष्य का.. कि वह योग्य है.. या नहीं… क्योंकि शिष्य यह चयन कर सकता है.. कि गुरू योग्य है कि… नहीं…
क्योंकि यदि तुम फैसले ले सकते हो… तो…. फिर तुम्हें गुरू की आवश्यकता ही क्यों… तुम तो स्वयं ही हर फैसले के निर्णय लेने मे समर्थ हो… और स्वयं ही हर फैसले का आंकलन करते हो… और गुरू को खोजने लग जाते है… और उसे अपने ही आंकलन अनुसार ही तोलने लगते हो, परखने लगते हो… और बुद्धिमान मान बैठे हो… और तुम्हे गुरू नहीं… बल्कि अपने अनुसार कार्य करने वाला व्यक्ति चाहिए… क्योंकि गुरू अलग ही तत्व है.. अलग ही ऊर्जा है…
तुम मे पात्रता नहीं है कि तुम चुनाव कर सकते हो… तुम चयन कर सकते हो.. तुम्हें जब यह ही मालुम ही नहीं है कि तुम्हारे लिए क्या सही है… क्या सही नही है.. क्सा गलत है.. कौन वस्तु तुम्हारे योग्य है. .तो फिर गुरू का चयन किस तरह कर सकते है..
बचपन से लेकर तुम्हारे लिए ही तुम्हारे मां बाप ने हर वस्तु का चयन किया है.. क्योंकि उन्हें ज्ञात है कि तुम्हारे लिए क्या सही है क्या गलत है……यह तुम निर्णय नहीं ले सकते हो… क्या तुम अपने मां बाप के निर्णय ले सकते है. .क्या तुमने यह निर्णय लिया की जो तुम्हारे मां बाप है… वे तुम्हारे योग्य है कि नहीं… क्योंकि तुम केवल अंधेरे को ही चुन सकते है.. प्रकाश को नहीं.
तुम्हारे स्थिति ही ऐसी है.. क्योंकि जब तुम अपने मां बाप के निर्णय के विरोध करते है,तो क्या होता है… कि अंत मे तुम थककर हारकर उन्हीं के पास लौट आते है. और गलती का अफसोस करते हो.. जिन मां बाप ने बचपन से तुम्हारे पक्ष मे निर्णय लिये है… तुम्हारे हित मे लिये है.. क्योंकि वे निष्पक्ष होते है. तुम्हारी खुशी चाहते है.. तुम्हे खुश देखना चाहते है..
यही स्थिति गुरू और शिष्य की. .मैं तो टूक शब्द ठोक के बोलता हूं कि शिष्य कभी भी गुरू का निर्णय नहीं ले सकते है कि… ये गुरू मेरे योग्य है कि नही… तुम निर्णय लेने योग्य होते है तो तुम्हे फिर किसी की सलाह की आवश्यकता नहीं होती और न किसी आंकलन की. तुम निर्णय लोगे.. अपनी बुद्धि के अनुसार, अपनी परिधि के अनुसार, क्योंकि तुम केवल निर्णय ले सकते हो अपनी क्षमता के अनुसार, अपनी योग्यता के अनुसार…. जितनी तुम्हारी सोच है… तुम्हारी क्षमता है.. योग्यता है..
यही सभी कारण है कि तुम सही गुरू की बजाये तुम पाखंडी, ढोंगी गुरू को अपना गुरू बना बैठते है.. तुम यह निर्णय अपनी योग्यता के अनुसार ही लेते है.. और तुम यही निर्णय लेते है कि तुम्हारे लिये क्या सही है, क्या गलत है, कौन साधना करनी है कौन नहीं, और वे गुरू भी वैसे होते है, और तुम्हारे ही अनुसार ही कार्य करते है,…इसी को तो कहते है….
“”””””गुरू घण्टाल “””” और शिष्य अपनी मौज करता रहता है. …..जब अंत समय आता है…. त६ तुम आड में बैठे होंगे….. कि गुरू अब देंगे.. कुछ न कुछ देंगे….क्योंकि जो गुप्त चीज है उसे अब देंगे… अंत समय है. साथ लेंगे थोडा जायेंगे.. और वे गुरू भी अंतिम समय यही सोचते है… कि मैने तो जीवन मे कुछ किया ही नही और जीवन भर शिष्य के ईशारों मे नीचता रहा और अब भी ये मुझे अपने ईशारे मे नचा रहे है… …क्या ये गुरू है.. गुरू का निर्णय शिष्य नहीं ले सकता है….. बल्कि गुरू ही शिष्य का निर्णय लेता है..

जिस तरह से माटी का निर्माण कुम्हार करता है… तो उसी प्रकार से गुरू भी शिष्य का निर्माण करता है… बल्कि शिष्य नही… और ना ही माटी कुम्हार का.. यदि मिट्टी कुम्हार के अनुसार ही बनने को तैयार होती है.. अपने आपको उसके हाथों मे सौंप देती है.. तो तभी कुछ बनकर आती है.. और मूल्यवान व सुन्दर बन जाती हैं… मिट्टी को फ्र व सब कुछ सहन ही करना पडेगा…. कुम्हार उसके पीटेगा, गुंथेगा, घुंसे मारकर कर… और उसका निर्माण करता है.. और भीतर से सहारा देता है और बाहर से चोट मारता…. तब जाके कुछ बनकर आती है वह, तब जाते उसकी कीमत बढती है.. ठीक गुरू भी इसी तरह से क्रिया करता है.. शिष्य का निर्माण करता है..
यदि मिट्टी कुम्हार से कहे तो मुझे इस तरह से बना… और इस तरह से निर्माण कर… तो क्या फिर मिट्टी कुछ बन जायेगी.. नहीं न… तो कुम्हार क्या करता… कुम्हार ऐसी मिट्टी को इक्ट्ठा करके किसी गंदे गढ्ढे में डाल देगा… क्योंकि उसकी जगह ही वोही है…क्योंकि यह निर्णय तो कुम्हार ही लेगा की मिट्टी का निर्माण किस तरह से करना है… न यह निर्णय मिट्टी नहीं लेगी….. कि उसका निर्णय किस तरह से होना चाहिए….और मिट्टी यह निर्णय नहीं ले सकती है… कि उसका निर्माण किस तरह से होना चाहिए..या यह कुम्हार उसका निर्माण सही रूप से कर पायेगा…… क्योंकि इसका निर्णय लेने की योग्यता मिट्टी के अंदर नहीं है.. और न हो भी सकती है… यह निर्णय केवल कुम्हार ही लेगा की मिट्टी का निर्माण किस तरह से करना है.. किस तरह से उसका उपयोग करना है… मिट्टी को स्वयं के उपयोग का ज्ञान नहीं है.. वह तो केवल कुम्हार को ही है.. क्योंकि वह उसका निर्माणक है, उसका गुरू है… वह ही निर्णय ले सकता है कि मिट्टी किस योग्य है.. और किस तरह से उसका सहीं उपयोग करना है..
ठीक यही स्थिति गुरू और शिष्य की है… आजकल के शिष्य भी मिट्टी की तरह है… जो सारे निर्णय स्वयं लेता है… और उसका हाल मिट्टी की तरह होता है…..जो उस गड्ढे मे पडी है..क्योंकि मिट्टी को तो कुम्हार पर पूर्ण रूप से विश्वास करना है… उसके प्रति समर्पित होना ही पडेगा… बिना किसी उपेक्षा के… एक दम खाली…जब पात्र खाली होगा तो तब ही उसमें कुछ भर सकता है..
अन्यथा वोही स्थिति होगी जो मिट्टीकी है.. जो गढ्ढे मे पडी है.. शिष्य का निर्णय गुरू ही लेता… है… गुरू ही शिष्य बनाता है… बल्कि शिष्य. नहीं… शिष्य की बुद्धि इतनी नहीं है कि वह गुरू का चुनाव कर सके.. गुरू का निर्णय ले सके…..यदि शिष्य मे पात्रता है तो गुरू स्वयं ही शिष्य को अपने तक पहुंचने का मार्ग प्रशस्त कर देता है.. क्योंकि तब गुरू पूर्ण ऊर्जा के साथ अपने शिष्य को अपनी ओर खींच लेता है… और शिष्य तो इसी भ्रम में रहता है कि हमने यात्रा की है गुरू तक पहुंचने की… गुरू को खोजने में.. और जब तक शिष्य अपनी नकारात्मकता को छोड़ने नहीं देता है तब तक गुरू प्रहार करता रहता है…..कुम्हार की तरह… जो मिट्टी की नकारात्मकता को गूंज और पीट पीट कर दूर करता है.. और गुरू ज्ञान के सहारे ही दूर करता है..
इसलिए मैं कह रहा हूं कि तुम केवल खाली रहो…. भरे हुये नहीं… तुम खाली हो तो प्रकृति तुम्हे भरने के पूरी कोशिश करती है… तुम खाली रहो…. पांडित्य तो केवल भरा हुआ ज्ञान है….. यह वह ज्ञान है जिसमें उनका अपना कोई अनुभव नहीं है… और न ही शोध…. केवल रटा रटाया ज्ञान…. जो अनंत काल से चलता आ रहा है… और आगे चलते रहेगा… क्योंकि वे सब जानकारी पहले से ही मौजूद है… हमारे समक्ष… बस हमने केवल अध्ययन किया… और अध्ययन करके अपने ही अनुसार व्याख्या कर दी है… और अनुभव है ही नहीं.. क्योंकि तुमने उसके स्वाद को नहीं चखा है… और तुमने उसे अपना मान लिया है.. ठीक उसी प्रकार से… जिस प्रकार जिसने शहद के स्वाद नहीं लिया है… और वह उसे परिभाषित कर रहा है.. और उसे क्या पता कि शहद मीठा है या कडवा है… मिठा तो है यह सबने सुना है… पर खाने में कैसा है… कैसा अनुभव है.. यह ज्ञात नहीं है.. यह तो वोही जानता है जिसने उसका स्वाद चखा हैै…. अनुभव किया है… और समाज की हालात ही ऐसी है… यहां पर सभी दूसरे के स्वाद को अपना स्वाद कह देते है.. अपने अनुभव बताते है.. और व्याख्या कर देते है.. पांडित्य तो अहंकार है……भ्रम… क्योंकि ज्ञान से जानकारी की वृद्धि होती है़ और जानकारी से भ्रम…
और लोग भ्रम रूपी ज्ञान ले कर ही समाज मे अपनी व्याख्या करते रहते है… और अपने आपको यह मान लेता है कि उसके अब कुछ प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं है… क्योंकि मैं सब कुछ जानता है… पर इसी सब कुछ के कारण वह दूसरो को भी अंधेरे में रखता है और स्वयं को भी… और आजकल शिष्य तो यही चाहते है कि गुरू जी है… बस सबकुछ हो जायेगा.. मुझे करने की जरूरत नहीं है… गुरू जी तो स्वामी है.. वह है… मुझे तो केवल गुरू जी के पास बैठना है… और गुरू जी मुझे यह साधना चाहिए…. वह है… मुझे तो केवल गुरू जी के पास बैठना है… और गुरू जी मुझे यह साधना चाहिए…. पर मुझे करना कुछ नहीं है… और बिना करें यह सिद्धि प्राप्त हो जाये……. और वे गुरू भी कहते है कोई बात नहीं बेटा. .बस अनुष्ठान कर लेंगे हम तेरे लिए और तुझे मां सिद्ध हो जायेगी…..बस बेटा तीन अनुष्ठान करने होंगे..हर एक एक अनुष्ठान मे कम से कम दस से बीस हजार खर्च आ जायेगा…….. और शिष्य सोचत़ा है कि बस सिद्धि प्राप्त हो जायेगी और पैसे दे देता है. तीन अनुष्ठान करने के बाद भी जब कुछ नहीं होता है तो… गुरू के पास चला जाता है.. और कहते है गुरू जी कुछ अनुभव हुये ही नहीं.. तो गुरू जी रहता है बेटा कल आ जाना ज मे समाधि मे जाकर पता करूंगा…….. अगले दिन आता है… तो गुरू कहता है कि मां कह रही है कि तुममें पात्रता नहीं है…..तुम मे योग्यता नहीं है… तो शिष्य रहता है गुरू जी फिर क्या करना होगा… कुछ नी बेटे एक अनुष्ठान करना होगा… बस कम से कम 50 हजार खर्च आयेगा..
यहां पर तुम शिष्य भी गलत और वह गुरू भी…. दोनो पाखंड को बढावा दे रहे है…यदि भगवान ने तुम्हे बुद्धि दी हो तो उसका प्रयोग करना जानते हो तो… तुम इस तरह के पाखंड को बढावा नहीं देते… क्योंकि
………पहली बात कि दुनिया भी कोई भी गुरू ऐसा नहीं है कि जो तुम्हें बिना कुछ क्रिया किये सिद्ध बना दें…. और न ही किस के अंदर यह क्षमता है… यह केवल तंत्र के गुरू आदिदेव महादेव के पास है… जो गुरू इस तरह का दावा करता है तो वह धोखे बाज है…
दूसरी बात उन गुरूओं को जो यह कहते है कि मां कह रही है तुम में योग्यता का नहीं है… तो यदि तुम क्रिया कर रहे है… तो तुम मुझ योग्य बना सकते है… उसके योग्य… जिससे सिद्धि प्राप्त हो सके… और ये गुरू ऐसे होते है कि मानो सारी सिद्धियां इनके वश में… और इनका प्रभुत्व है इनके ऊपर ये जहां भेंजगे वहां जायेगी… ये तो प्रकृति को अपनेअनुसार चला सकते है… तो फिर इस सृष्टि को ब्रह्मा की जरूरत ही नहीं होनी चाहिए…
तुम ऐसे शिष्य हो… जो अपने अनुसार निर्णय लेकर इस प्रकार के गुरू का चुनाव कर सकते है… और इसी तरह से जीवन में चुनाव करते रहते है.. इसलिए हर बार कह रहा हूं कि शिष्य में पात्रता नहीं है कि वे गुरू का चुनाव कर सके… केवल गुरू ही शिष्य का चुनाव कर सकता है.. यही रहस्य है गुरू और शिष्य का और पाखंड…
तुम केवल खाली रहो. ……साक्षी भाव बने रहो… दो हो रहा है… गुरू जो करवा रहा है…. बस नामित माध्यम बनकर करते रहे हो. ….सबकुछ तुम्हे प्राप्त होता रहेगा… क्योंकि गुरू ही निर्णय लेगा कि तुम्हे क्या देना चाहिए क्या नहीं..
यही सृष्टि और आगामशास्त्रों का ज्ञान है… और सत्यता है… और वेद का ज्ञान है…
प्रणाम
तुम सबका हितार्थी….
निखिल ठाकुर…..

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