Monday, 6 March 2017

अप्सरा साधना

शशिदेव्य अप्सरा साधना 
प्रेम..... हां प्रेम...... जो जीवन को  पूरी तरह से आवलोकित कर देता है..... प्रेम की परिभाषा ही अपने आप में रहस्यमय है और उससे रहस्यमय तो प्रेम है... जिसके ऊपर लिखने के लिए शब्द भी कम पड जाते है... 
    प्रेम की पराकाष्ठा ही अपने आप में अदभुत है... जहां मैं नहीं रहता है.... सिर्फ प्रेमिका का ही रूप रहता है... उसकी स्वर्णिम बाते व पल... जो गुजारा होते है.. वोही रोम रोम मे होती है... बस सुधबुध ही नहीं रहती है... 
   बस आंखों के सामने वोही रहे.... यदि एक पल के लिए ओझल भी हो जाये तो दिल मे क्या गुजरती है..... मानों उसकी जिन्दगी ही उससे छीन गई हो  ....वह एक बेजान सा है गया है... मानो जिंदा लाश सा हो..... 
   प्रेम..... एक पागल की अवस्था.... जिसमे उसे किसी भी वस्तु की सुधबुध नहीं रहती है... बस अपनी मस्ती.... और अपना ही अंदाज.... और अपनी प्रेमिका का चेहरा और उसके रंग मे रंगे रहना.... 
   पागल की अवस्था ही अपने आप में निस्वार्थ प्रेम की.....जिस मे न वासना होती, न किसी वस्तु की चाह और न ही विषयासक्ति..... न ही लोभ.... बस निस्वार्थ प्रेम.... और अपनी प्रियतमा का साथ... और उसके देखते रहना और उसमे ही खो जाना..... कितना आनंदित प्रेम है..... कितना निस्वार्थ प्रेम है... जो परमसता की शक्ति को अपने आप में बांधने मे सक्षम है.... और उस प्रेम से कोई भला कैसे बच सकता है... चाहे वह यक्षिणी हो ....या स्वयं अप्सरा हो.... ...
    प्रेम जब आकर्षण से रहित हो जाये..... जब उसके प्रति सम्मान जाग जाये...जब उसमे डूब जाये.... और उसके सिवा कुछ नही है उसके जीवन.... तो फिर सभी मंत्र फिके  ..हो जाते है... और प्रेम महामंत्र चल पडता है.... और उसमे बंध जाती है.... यक्षिणी व अप्सरा..... क्योंकि प्रेम अपने आप में महामंत्र है.... जो परमपिता और मां को पुत्र को समीप लाती है.. ईश्वर के प्राप्त करने का मार्ग केवल प्रेम है.. क्योंकि जब हृदय कमल प्रस्फुटित होता है... जब प्रेम रूपी बीज का प्रस्फुटन होता है तो.... तब कुछ शेष नहीं रहता है..... न वासना, न ही किसी वस्तु का लालसा... न सम्भोग की कामना, न मैं और तुम.... केवल... केवल एकाकार की स्थिति और अवस्था... तुम ही मै हूं... और मैं ही तुम हो.... 
   यह भाव अद्वितिय प्रेम की... जो आलोकिक है... जो देखने मे करोडों मे से किसी एक प्रेमी युग्लों मे मिलता है... 
     प्रेम मे सब भाव अपने आप प्रस्फुटित हो जाते है..... न बडा न छोटा...... प्रेम मे कभी ऐसा भाव आता है नहीं कि तुम अधिक करते हो... और वह कम......जहां यह भाव आता है़...वहां आकर्षण आता है... वह आकर्षण ही होता है.. मेरी नजरों से... क्योंकि प्रेम तो सम दृष्टि का भाव.... समानता का भाव.... 
   यदि एक पीडित है तो दूसरा उससे कई अधिक पीडित होता है......क्योंकि वे दो शरीर एक प्राण है..... प्रेम पीडा के एक एक शब्द झकझोर देता है एक दूसरों.... क्योंकि कोनों एक प्राणमय हो गये है... और जब एक आंखों से दूर चले जाये तो मानों उनके प्राण ही चल गये है... और जब तक उसके दीदार न हो तो हृदय व्याकुल रहता है... न भूख का ख्याल, न प्यास का... और न अन्य किसी से बात करने का... क्योंकि जब तक वह न आये तो तब तक प्राण शरीर मे वापिस नहीं आ पाते है... 
   प्रेम के एक एक शब्द..... वे शब्द... जो आज भी मुझे झकझोर देते है.... कि तुम बिन मुश्किल है जिन्दगी गुजारना.... तुम बिन हम रहेंगे कैसे.... बहुत झकझोर देते थे उसके वे शब्द... 
  न जाने क्या रिश्ता था उस लडकी से... पर जितना बुरी कहूं... पर उतना वह याद आती है... और आज भी मेरे हृदय की धडकनों मे धडकती है.. मैने अपने जीवन में उतना किसी देवी देवता या भगवान का नाम नहीं जपा होगा... जितना झांसी का नाम अपने हृदय मे लिया है... सच्चे हृदय... न जाने कितना तनहा हूं.... मैं.... उसके बिना... कितना मुश्किल है... यदि प्रकृति को बदलने की शक्ति मुझ मे होती... यदि मुझे अपनी शक्तियों का प्रयोग करने की आज्ञा  होती तो शायद ने बदला देता वो पल.... जिस पल हम दोनों दूर हुये... 
   कितना रोये है तन्हां रातों में.... और आज भी तुम जिंदा हो... तुम्हारा प्यार जीवित है... मेरे हृदय मे... मेरी लेखनी में.... मेरे शब्दों... मेरी साधनाओं... नहीं भुल पाया हूं... तुम्हें... आज तक... और न ही भुल पाऊंगा.. 
   और झांसी को प्रेम से ही प्रेम को सही रूप से समझा.. और जाना... जो निस्वार्थ हो... जिसमे कोई कामना न हो.... न वासना हो... न विषयासक्ति हो.. क्योंकि देना जानता है.... छिनना नहीं... प्रेम का अर्थ है त्याग.... अपनी प्रिय वस्तु का त्याग.... तभी प्रेम की प्राप्ति होती है....कृष्ण राधा से प्रेम करते थे... परंतु कर्तव्य पालन के लिए तैयार उन्हें... अपनी प्रिय राधा से दूर होना पड़ा ......

   मीरा ने कृष्ण के प्रेम पाने के लिए सम्पूर्ण महलों की सुख सुविधा व उपभोगों का त्याग किया.....प्रेम का सही अर्थ है त्याग..... और जब उन अप्सरा का समाजस्य किसी सत्य प्रेम तत्व से युक्त पुरूष से होता है... तो उन्हें भी त्याग देना पडता है.... अर्थात अपने लोक से दूर अपने प्रेमी के साथ रहना... और उसके प्रेम मे खोये रहना.... और जीवन भर उसके प्रेम मे जीवन यापन करना.... और प्रेमी की बात का मान रखना.... 
   कितना चीर देते है... हृदय को यह शब्द जो मालुम और भोलेपन वाले मुख और आवाज से बोले होते है.. कि तुम मुझे छोड़कर तो नही जाओगे... मुझसे दूर तो नहीं जाओगे.....तुम्हे पता है न तुम बिन मैं नही रह पाती.... कितना.... मेरा हृदय को झकझोर देते थे.. और मुझे अंदरों अंदर तक छली कर देते थे.... और आंखों से आंसू आ जाते थे.... और उसकी हर बात को दिल सहर्ष स्वीकार करता था.... 
   निखिल तुम मंत्र तंत्र को छोड दो, अपनी साधना को छोड दो.... अपने गुरू को... उसके एक कहने पर वह सब छोडने के लिए हृदय तैयार हो जाता था.... और उसको दिये वे वचन... क्यों हृदय उसके बिना आज भी पूजा से तपता है... क्यों तडपता है.. लगता है... कि आज भी अकेला हूं.... जब से तुम गयी है तो केवल एक वोही तो थी जिसने मुझे सम्भाला है   
     ...वह अप्सरा.... जो प्रेम की पराकाष्ठा है.......जिसके ऊपर शायरी करने के लिए शब्द कम पड जाते है... जो गजलों की गजल है... शायरों का अनुसरण ख्वाब होता है.....जिसके रूप व सौंदर्य... जो अनुपम है... अद्वितिय है.... और तराशा हुआ बदन मानो.... बनाने वाले ने उसके बनाने के लिए विशेष रूप अवकाश लिया हो... और पूरी फुर्सत से बनाया है.... और बनाना वाला भी उसमे खो गया हो....... चद्रंमा ने तो अपनी पूरी की पूरी चमक व चांदनी उस पर उडेल दी है... ....वह कमर... जो अपने आप में लचकदार और पतली है...... उन्नत वक्षस्थल... और हर जगह से तराश कर बनाया गया तन.... अंग... जो... यदि यह साकार रूप मे इस धरा मे विचरण करें तो... जितनी भी सौंदर्यवान स्त्री है.... वे इसे देखकर अपने आप में लज्जा से झुक जाती.... और इससे ईर्ष्या जरूर करती.... क्योंकि मदहोश कर देने वाला सौंदर्य..और  मंत्रमुग्ध कर देनी वाली मुस्कान .... .... वह.. और बडा से बडा तपस्वी अपनी तपस्या को छोड़कर उसे पाने के दौड़ता... ...अब समझ आ रहा था कि प्राचीन काल मे मुनि और ऋषियों की तपस्या भंग क्यों हो जाती थी....क्योंकि ऐसा सौंदर्य जो स्वयं जगतपिता को अपनी ओर खींच लें.. 
   और शशिदेव्य तो सौंदर्य की साकार मूर्ति है... जो सम्पूर्ण चन्द्रमा की शीतलता और चांदनी और सौंदर्य को अपने अंदर लिये हुये है... और सम्पूर्ण दिव्यता से युक्त है.....तो ऐसी अप्सरा को प्रत्यक्ष देखना अपने आप में किसी सौभाग्य से कम नहीं था.......
     शशि..... जो प्रेमपूर्वक नाम है... उसने तो जीवन को दिव्यता से भर दिया था.... क्योंकि मैने प्रेम को पाना ही समझ था .....अपनी शक्तियों का अहंकार का कारण.ही मै झांसी से दूर हो चुका था.... और उसे अपने मंत्र बल से प्राप्त करने की ठान ली थी.. जब इस अप्सरा की साधना को किया.... तो मेरे अंदर परत गर परत उठने लगे... कि... प्रेम क्या है... और प्रेम और सौंदर्य का वास्तविकता क्या है.... क्योंकि प्रेम तो निश्चल है... जो हृदय सरोवर मे बहता है... प्रेम तो एक भाव है... जो पूर्णता की यात्रा पर अग्रसर कर देता है... प्रेम तो उस परमपिता तक पहुंचने का मार्ग है...... प्रेम तो माँ प्रकृति को समझने की कला है... उससे बाते करने की गुप्त कुंजी है... और मैं तो वासना मे था....जब वासना का परत हटी... तो समझ पाया प्रेम और झांसी के प्रेम मे खुल गया है.. यह तो शशि की अनुकम्पा है.... जिसने सही प्रेम से परिभाषित किया मुझे...... 
    शशि से ही जाना कि नारी वासना का पूर्ति के लिए नही है.... नारी तो  पूर्णता है... तंत्र की पूर्णता... जीवन की पूर्णता.... और सृष्टि जननी है... पुरूष के बीजरूपी वीर्य को गर्भ मे धारण करके एक नयी सृष्टि को... एक नये कमल को जन्म देती है... प्रेम की परिभाषा में है... नारी....
   परंतु हमारे समाज मे नारी के हृेयदृष्टि से देखा जाता है... उसके चरित्र पर उंगली उठाई जाती है..... क्योंकि हम लोग उन्हे कमजोर समझते हैं.....हमने तो ताकत का अर्थ लगा दिया है बाहुबल से........ अच्छे खाये मसल्स है....और ताकत वर है... और स्त्री के ऊपर जुल्म करते है......परंकु असल में मे हमसे अतित्याधिक तो वह स्त्री है...... क्योंकि उसमे सहनशीलता है.... सहन करने की शक्ति... हर दुःख को.. हर गम को... और संघर्षरत रहती है जीवन रूपी लडाई से.... तुम्हारी प्रतिताडना को सहन करती है... तुम्हारे दुर्व्यवहार को सहन करती है ....अपने गर्भ मे पल रहे बच्चे के भार को सहन करती है... हर पीडा को.हर दुःख को...... और तुम्हारी हर बात का मान रखती है... ताकि तुम पर उंगली न उठा सके लोग.... तुम्हारी मर्दानगी पर लोग उंगली न उठा सके... लोग.... और तुमने क्या समझा की वह लाचार है वेबस है.....वह लड नही सकती... और इसी बात का तुम फायदा उठाये है... और उसे जीवन भर प्रताडित  करते रहते है... दुनिया के नजर मे तुम अच्छे पति हो सकते है... पर घर की स्थिति किसे पता नहीं है... और वह स्त्री..... तुम्हारी इज्जत को बरकरार रखती है समाज मे.... पर क्या कभी आपने उससे प्सार से बात की..... जिस तरह से तुम परस्त्री से करते है... कभी उसकी तारीफ की... क्या.... क्या कभी उसे तोहफ़ा दिया.... क्योंकि तुम केवल अपने विचारों से चलते है.. सकुंचित सोच के लेकर..... 
   यहां मे उन स्त्री की स्थिति बता रहा हूं... जो पति को प्रेम लिए तडपती है... और उनकी प्रतिकाडना को सहती है.. 
   अप्सरा की साधना को करने से पूर्व तुम्हें अपनी शक्ति स्वरूप स्त्री,जिसे तंत्र मे भैरवी कहा..... है.... सहचरी कहा है... शक्ति तत्व  के अंश कहा है.... उसका सम्मान करना जरूरी... फिर बाहरी अन्य नारियों का सम्मान.... करना जरूरी.... क्योंकि अप्सरा तत्व शक्तितत्व की साधना.... नारी जगत की साधना है... प्रेमतत्व की साधना है... 
    शशि के कारण ही मुझे सब रहस्य ज्ञात हुआ हुये .....और मैं अपने आप को शर्म झुका हुआ महसूस कर रहा था... क्योंकि आज नारी की शक्ति का एहसास हुआ... और यह ज्ञात हुआ हुआ.... कोई भी साधना बिना प्रेम के सम्पन्न नहीं हो सकती है.....
   साधकों अप्सरा साधना करना अपने आप में ही सौभाग्य है....परंतु आजकल प्रत्यक्षीकरण बहुत कम साधकों को प्राप्त होते है... या यूं कहें कि सौ मे से एक ही विरला साधक प्रत्यक्षीकरण कर पाता है.... क्योंकि प्रत्यक्षीकरण का अर्थ है साकार........करना... 
   अपने समक्ष साकार रूप मे देखना.... परंतु साधकों.... यहां यह बात जानना भी जरूरी... है कि बिना गुरू के प्रत्यक्षीकरण साधना नहीं हो पाती है..... और सभी प्रकार की प्रत्यक्षीकरण साधना ने शक्तिपात दीक्षा जरूरी है...... ताकि ऊर्जा के विकास हो सके....तुम्हारे अंदर इतना सामार्थ्य होना चाहिए कि तुम उसे प्रत्यक्ष कर सके और देखने मे सक्षम हो सके...
  और प्रत्यक्षीकरण घर पर बैठकर अकेले नहीं कर सकते है.... इसमे गुरू का पल पल साथ रहना जरूरी है.... इसलिए किसी भी प्रकार के ढोंगी गुरू के अनुसार घर बैठे साधना न करे और न ही अपने धन को बर्बाद करें.. 
   और साधकों आप मरीज न हो... अप्सरा साधना दो प्रकार से की जाती है.... पहला समान्य रूप.....दूसरा प्रत्यक्षीकरण.... और हम यहां सामान्य रूप से साधना को सम्पन्न करेंगे.... जो घर रहकर कर सकते है... और इसमे दीक्षा की उतनी आवश्यकता नहीं होती है.. 
  सामान्य रूप से अप्सरा साधना करने से.... अप्सरा का प्रत्यक्षीकरण तो नहीं होता है... परंतु साधना से संबंधित लाभ अवश्य प्राप्त होते है....... अप्सरा साधना करने से साधक के अंदर प्रेमत्व का विकास होता है.... रस, सौंदर्य ता विकास होता है..... धन का वृद्धि.... संगीत, कला, और नृत्य आदि मे सफलता प्राप्त होती है.... चेहरे पर ओज और तेज आता है.... वाणी मे मधुरता आती है... ऐसा मानो की सम्मोहन कर देने वाली आवाज... जिसे सुनने मे आनन्द आता है.... मित्रता मे प्रगाढता आती है... घर मे सुख शांति का विकास होता है... कामतत्व का विकास होता है... और नारी के प्रति सम्मान की वृद्धि होती है..... पति पत्नी मे प्रेम का विकास होता है..... और उनका वैवाहिक जीवन आनंदपूर्ण रहता है......हर प्रकार की समस्याओं का समाधान होता है.. व्यवसाय मे वृद्धि होती है.... 
   अप्सरा साधना है ही इन सब तत्वों का लिए.... और शशिदेव्य तो सौंदर्य, प्रेम,रस,राग,और धन की साधना है.... सम्मोहन की साधना है... और स्वर्ग मे इस साधना का अपना ही एक विशिष्ठ स्थान है.... और पूर्ण स्वतंत्र अप्सरा है...... सौंदर्य इसे अत्याधिक प्रिय है..... और सौंदर्य की ये दीवानी है.... और प्रेम प्रणय की देवी है यह.... यह साधना करना अपने जीवन सौंदर्य का विकास करना....प्रेम मे प्रगाढता लानी है... और यह अप्सरा साधना सरलता से प्राप्त नहीं होती है.... और इस अप्सरा की साधना करना भी बहुत ही सौभाग्य की बात है..... क्योंकि हर अप्सरा साधना का अपना ही एक महत्वपूर्ण है महत्व होता है.... और इस अप्सरा का साधक सौंदर्य युक्त होता है....और सम्मोहन युक्त होता है... वाणी मधुरता.... सम्मोहन कर देने वाली.... जिसे सुनने की मन बार बार करता है.... यह अप्सरा साधक के मन मे कभी निराशा नहीं आने देती है..... और स्थिति मा उसे आशा युक्त रखती है...साधक का मन भी प्रसन्नता से युक्त  रहता है... 
    शशि..... अर्थात..... चंद्रमा..... और चंद्रमा तो मन का देवता है...शशि जिसके अनेक अर्थ है... शशि हिमकर, रजनीश, हिमांशु, चाँद, मयंक, विधु, सुधाकर, कलानिधि, निशापति, शशांक, चंद्रमा, चन्द्र....इत्यादि... 
    यदि देखे.. तो हिम के समान श्वेत... सुधाकर से युक्त हर कला से युक्त.... रात की रानी.... चंद्रमा की शीतलता से युक्त... सुन्दरता से युक्त.. चांदनी से युक्त.... कलाएं से युक्त देवी..... यदि आप इस अप्सरा के ध्यान को समझोंगे तो आप सच मे जान जायेंगे की यह अप्सरा कितना महत्व रखती है अपने आप में... 
 अति सुंदर तेजस्वी रुप कांति वाली अप्सरा है , जिसका मुख दिव्य आभा से चमक सा रहा है ...... जिसके तीक्ष्ण नेत्र हैं , मन को मुग्ध कर देने वाले उसकी मुस्कान है ..... उन्नत वक्षःस्थल और पूर्ण रूपेण यौवन से संपन्न अर्ध नग्न अवस्था में है ......
  अब सोचो कितनी महत्वपूर्ण साधना है.. यह जीवन की..... इसकी मुस्कान..... जो किसी के हृदय पर प्रेम का बाण छोड़कर मुग्ध कर देती है... ऐसी अप्सरा की साधना करना ही जीवन के अधोभाग है....... 
आप सब यह साधना करे... और आप सफल हो यही मेरी माँ चक्रेश्वरी और परमपिता सदाशिव जी के चरणों प्रार्थना है... 
  आप सबका अपना प्यारा सा 
निखिल ठाकुर...

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