होली तंत्रम..... भाग -1
!!!! ... तांत्रोक्त होली-साधनारूपी होली ही जीवन की वास्तविक होली है... .. !!!!!!
होली.. अपने आप में बहुत है आनंद और हर्षोल्लास का त्यौहार है... इस समय प्रत्येक व्यक्ति आपस मा मिल जुलकर पूरे आनंद से इस त्यौहार को मनाते है.. और अपनी खुशियों को व्यक्त करते है...
जीवन की इस यात्रा मे तो आप सबने आजतक बहुत बार होली के त्यौहार को मनाया होगा... और मानते आ हुये है.. और देखते आये है... वोही क्रिया रंग और एक दूसरे पे रंग डालना और अपने आपको खुश व्यक्त करना... हर जगह लोग इसी तरह मनाते आये है.... नाचना गाना, मदिरा पान करना, नये वस्त्र पहनना, घर की सफाई इत्यादि..... इनसे कुछ नया हमने किया ही नहीं..
किया इसलिए नहीं कि हमे इसका ज्ञान ही नहीं है कि होली का महत्व क्या है... हमने कभी जानने की कोशिश ही नहीं किया कि होली का हमारे जीवन क्या महत्व है.. बस हमने रंगों का नाम को ही होली मान कर बैठे है.. और बस मनाते आ रहे है,....मना रहे हैं....होली सो केवल त्यौहार मानकर बैठ गये है..
सिर्फ होली को ही नहीं...दिवाली, नवरात्रि, शिवरात्रि,दशहरा,कृष्णजन्माष्टमी आदि को ही त्यौहार मानकर बैठे है.. आज तक जान ही नहीं पाये है इनके महत्व को... इनको मनाने के महत्व को... हमारे मुनियों व योगियों के तात्पर्य को नहीं समझ पाये.... समझ पाये ही नहीं... क्योंकि तुम समझना ही नहीं चाहते है.... कभी कोशिश ही नहीं की... प्रयासित ही नही हुये तुम..... बस मद्यपान मे डुबे रहे.... नाच गाने मे डुबे रहे... जीवन की सत्यता से छुपते रहे...
कायरों की तरह भागता रहे, और आज तक भाग रहें... बस भागने मे ही जीवन निकल रहा है.. और गुजर रहा है... और इसी तरह से जीवन खत्म हो जायेगा... फिर क्या बीबी रोयेगी... जीवन कभी प्यार से रहे ही नहीं... तब तो गाली देकर तुम्हें कोसती थी..... कहती थी कि मैने तुमसे शादि करके गलती की... मेरे किस्मत ही फूटे थे... जो तुमसे विवाह हो गया... और अब रो रही है ....रो - रो के बुरा हाल है उसका....
रो तो रही है... क्योंकि अब जिम्मेवारियां इस पर है... आज तक तो तुम निभाते आ रहे थे... ..वह सब अब उसके सिर पर है... बच्चों का स्कुल, ना जाने क्या....
रोना तो स्वाभाविक है ....भले ही वह कलह करती थी...झगडती रहती हो... पर रोना तो स्वाभाविक... जो इतने वर्षों साथ रहे... अहं था उसे कि तुम हो तब तक उसे कमी नहीं हो सकती है... वह चूरा चूरा हो गया... खत्म हो गया....
यदि तुम्हारा शत्रु भी होता तो वह भी रोयेगा... क्योंकि शत्रुता खत्म हो गई... कौन अब उससे लडेगा... कौन शत्रुता करेगा... रोयेगा... पर.... फिर भी क्या कुछ समय के बाद स्थितियां स्वभाविक रूप से सामान्य हो जायेगी... और तुम्हें भुल जायेंगे.... क्या यही जीवन की पूर्णता है... क्या यही जीवन का सार है... बस खुंटी पर लेकर चार कंधों पर श्मशान की यात्रा करना ही जीवन है क्या..... .. मेरी आत्मप्रज्ञा मे कुछ शब्दों के सृजन हो रहा है... जो सत्यता से परिपूर्ण है... जीवन के गहरे रहस्य को संजोये बैठी है..
!!! आखिर क्या , हासिल किया है इस जमाने मे मैने..
बस तमाम उम्र ठोकरे हीे ठोकरे खाता रहा, श्मशान तक की यात्रा के लिए!!!!
कितनी सत्यता से परिपूर्ण वाक्य हृदय कमल से प्रवाहित हुये... कुछ नहीं कर पाया मै जीवन मे.... कभी रंग रंगोली की तो कभी मदिरापान, तो कभी पत्नी से झगडा.. और कभी होली खेली बस इस तरह से ही जीवन व्यतीत किया और अंत मे चार लोगों के कंधों मे सवार होकर श्मशान की यात्रा के लिए चल पडा...
तुमने कभी महत्वों को समझा नहीं... प्रकृति का ईशारों को समझा नहीं.... बार बार प्रकृति ने अवसर दिये.... पर तुमने केवल गलत मार्ग का चयन किया... तुमने प्रकृति ते निर्मित मार्ग का चयन ही नहीं किया.... बस अपनी हठ और अपनी बुद्धि से निर्मित मार्ग का चयन किया.... जिसमे तुम्हे पीडा है... दुःख है.. तकलीफ है... जबकि प्रकृति ने तो अनेक अवसर दिये.... वह तो माँ है... कोई माँ अपने बेटे को गलत राह पर चलता देखकर,उसके विनाश को नही देखना चाहता है... पर तुमने हठ किया.... अपने मार्ग पर चलने का... फिर भी कोसते रहते हो तुम प्रकृति को.. क्योंकि तुमने कभी स्वीकार करना नहीं सिखा है.....कभी स्वीकारता को स्वीकार किया ही नहीं... क्योंकि तुम्हें सबकुछ तुम्हारी बुद्धि को अनुसार चाहिए.... और परिणाम भी तुम्हारी बुद्धि को अनुसार चाहिए...जिसके कारण तुम दुःखी हो..
यही बात तो समझा रहा हूं मै कि प्रकृति ने कई बार मौके दिये.... चाहे त्यौहार के रूप में हो... या किसी गुरू या माता पिता, मित्र या पत्नी को रूप मे हो.... पर तुम समझ नहीं पा रहे हो... माया के अधीन होकर तुम स्वयं का ही विनाश कर रहे..
यदि तुम होली की दिव्यता को समझ सकते तो... तुम जीवन के आधे भाग मे पूर्णता की ओर कदम अग्रसर कर चुके होते है... ब्रह्ममय होने की ओर अग्रसर हो चुके होते... यदि वेदों व शास्त्रों का कथन सत्य है... कि... """अहं ब्रह्मस्मि"""अहं शिवोहम..... तो तुम कदम बढा चुके होते..
क्योंकि हर प्रत्येक व्यक्ति ब्रह्म का ही एक रूप है.. और उसी ब्रह्म की चेतना उसमे विद्यमान है... और उस ब्रह्म से ही जन्मा है.. परंतु जन्म के बाद हम अपनी सीमित बुद्धि को अनुसार ही कार्य करते है.. कर्म करते है... और उसी के अनुसार ही फल भोगते है... पर एक बात आज तक समझ ही नही आई कि... जब शास्त्रों मे.... वेदों मे कहा गया है... अहं ब्रह्मस्मि.... तो व्यक्ति फिर ब्रह्ममय क्यों नहीं हो पाया.... यदि यह बात सत्य है तो... इसका अर्थ है कि मनुष्य के पास परमात्म का दिया हुआ ज्ञान है... चेतना है... यति ब्रह्म है तो उसकी चेतना भी होगी... फिर व्यक्ति दुःखी क्यों है..
क्योंकि उसने हर पहलु को अपनी बुद्धि को अनुसार आंकलन करके उसके परिणाम को पहले ही घोषित कर दिये होते है... जबकि परिणाम उसके विपरीत होते है..
और होली को भी हमने नाच गाने, मौज मस्ती मनाने का त्यौहार मान लिया है.. रंगों को फेंकने का त्सौहार मान सकते लिया है...जबकि होली का महत्व ही अपने आप में जीवन में परिवर्तन लाना है.... जाग्रति लाना है...अपने जीवन को ऊर्जावान बनाना है... बेरंग रूपी जीवन को रंगमय करना है..... जीवन रूपी नाव से दुःख, दर्द, रोग, शोक, विरह,शत्रुता ,बंधन, पाप रूपी तुफानों पर विजय प्राप्त करना है....
यह सब तभी होगा जब हम साधना रूपी पहियों को पकडेगें, और जीवन मे उतारेंगे.... जीवन को साधनारूपी रंग से पुरी तरह से रंग देंगे... होली का महत्व ही है साधनामय हो जाना
..साधना के रंग मे डुब जाना, इस कद्र खो जाना कि बाहर ती कोई सुधबुध न रहे...
तेरे रंगों मे इस तरह रंग चुका हूं.. कि.
बिन तेरे रहना भी अब एक पल मुश्किल सा है मेरा....
इस तरह से रंग जाओ... पूरे जोर का साथ,पुर्ण शक्ति का साथ, जितना तुम ने साहस है उस पूर्ण साहस के साथ डुब जाओ, इस साधनारूपी रंग के सागर मे... चाहे तुम्हारी अस्थि रहे या न रहे... इसकी तुम चिंता मत करो, अस्थियां तो फिर आ जायेगी... इनकी तुम चिंता मत करो... बस रंगे जाओ.. पूरी तरह से रंग जाओ, और गहराई से रंगते जाओ.... कि कोई भी दाग.. जो अहं, क्रोध, मोह, मद्य, लोभ, इत्यादि के दाग इस रंग पे लग नही सके..... होली का अर्थ है रंग जाना... ताकि कोई रंग फिर लग ना पाये..... एक प्रेमिका की तरह... प्रेम के रंग जाना... जब वह रंग जाती है.. पूरी तरह से प्रेम मे तो फिर न तो उसे किसी सीमा के याद रहती है.., ना घर वालों के डांट ,का, ना ही लोगों के बोलने की परवाह, बस तो बस प्रियतम का छवि, नैन बसी, और उसके सिवा और कोई रंग उसे भाता ही नहीं... क्योंकि वह डुब चुकी है, खो चुकी है, रंग चुकी है... रंगमय हो चुकी है.... बस हर घडी प्रियतम का नाम हृदय के कमल मे अंकित... उसके लिये तो उसका प्रियतम ही ईश्वर है.. और उसी के रंग मे जाती है... प्रेममय हो जाती है... फिर तो जमाना कुछ कहे... चाहे उसके प्रियतम के बारे मे कुछ कहे.. पर वह तो दिवानी है... उसे तो स्वयं की सुधबुध ही नही है... जिसे स्वयं की सुधबुध नही होती है.... वे ही तो सच्चे साधक या साधिका होती है... जो प्रेममय हो गये है वे ही तो तंत्र साधक होते है...
क्योंकि उनका तो सबकुछ प्रियतम होता है... प्रेमिका होती है... और तंत्र रूपी सागर ही ऐसा है... बस डुब जाना है... खोते मारने की जरूरत नहीं है... बार,बार बस एक बार छलांग मार लो उसमे,,, फिर छोड तो समुद्र का हवाले, समर्पित कर दो, व७ स्वयं ही किनारे पे ले आयेगा... जब तुमने समुद्र पर विश्वास करना सीख लिया तो वह अवश्य तुम्हें किनारे ले आयेगा...
बस तुम स्वयं को तंत्र पर छोड दो.. विश्वास के साथ... और तुम सही मे तंत्र का किनारे पहुंच जायेंगे....
होली का अर्थ और महत्व यही है... स्वयं को खो देना.... रंग देना साधनारूपी रंग से, तंत्ररूपी रंग से.... और उस प्रेमिका की तरह सुधबुध खो देना और प्रियतम का छली को आंखों मे बसा लेना...
होली तो तंत्र का उच्चकोटि का मुहूर्त है... जिसमे तंत्र की विलक्षण से भी विलक्षण साधना में पूर्णता प्राप्त की जा सकती है... चाहे फिर वीर साधना हो, वेताल साधना हो, भूत सिद्धि साधना हो, या यक्षिणी और अप्सरा हो, या तंत्र की उच्चकोटि की साधना हो, होली का तंत्र मे बहुत बडा महत्व है... क्योंकि इसमे प्रकृति और परमपिता की समस्त ऊर्जा सम्पूर्ण ब्रह्मांड मे विस्तारित हो जाती है... और इस ऊर्जा के अपने अंदर समाहित करके जीवन को ब्रह्ममय बनाना है..... यदि स्वर्ग भोगना है तो मृत्यु के बाद क्यों...मृत्यु के बाद किसने देखा है... यदि भोगना है तो जीवन को ही स्वर्गमय बनाओ, आनंदमय बनाओ प्रेममय बनाओ.... साधनामय बनाओ...
यही तो स्वर्ग है.. मृत्यु के बाद को स्वर्ग को किसी नही देखा, मेरी नजरों मे कपोलित बाते है... मृत्यु के बाद तीर्थ है मोक्ष... जीवन रूपी भार से मुक्ति... सभी बंधनों से मुक्ति, कर्मबंधनों सो मुक्ति.... इसलिए मृत्यु के बाद को स्वर्ग की ईच्छा को जोडकर जीवनरूपी स्वर्ग मे जीवन को सुखमय आनंदमय हो बनाओ, प्रेम के साथ, होली का साधनामय वातावरण को साथ... यही जीवन का सर्वथा है.... और यही जीवन की वास्तविक होली है... आप इसे समझे... यही मेरी कामना है
(होली तंत्रम~निखिल ठाकुर)
आप सबका अपना
निखिल ठाकुर...