Friday, 10 March 2017

होली तंत्रम


       
                                   
                                     होली तंत्रम..... भाग -1
       !!!!  ... तांत्रोक्त होली-साधनारूपी होली ही जीवन की वास्तविक होली है... .. !!!!!!
होली.. अपने आप में बहुत है आनंद और हर्षोल्लास का त्यौहार है... इस समय प्रत्येक व्यक्ति आपस मा मिल जुलकर पूरे आनंद से इस त्यौहार को मनाते है.. और अपनी खुशियों को व्यक्त करते है...
 जीवन की इस यात्रा मे तो आप सबने आजतक बहुत बार होली के त्यौहार को मनाया होगा... और मानते आ हुये है.. और देखते आये है... वोही क्रिया रंग और एक दूसरे पे रंग डालना और अपने आपको खुश व्यक्त करना... हर जगह लोग इसी तरह मनाते आये है.... नाचना गाना, मदिरा पान करना, नये वस्त्र पहनना, घर की सफाई इत्यादि..... इनसे कुछ नया हमने किया ही नहीं..
   किया इसलिए नहीं कि हमे इसका ज्ञान ही नहीं है कि होली का महत्व क्या है... हमने कभी जानने की कोशिश ही नहीं किया कि होली का हमारे जीवन क्या महत्व है.. बस हमने रंगों का नाम को ही होली मान कर बैठे है.. और बस मनाते आ रहे है,....मना रहे हैं....होली सो केवल त्यौहार मानकर बैठ गये है..
  सिर्फ होली को ही नहीं...दिवाली, नवरात्रि, शिवरात्रि,दशहरा,कृष्णजन्माष्टमी  आदि को ही त्यौहार मानकर बैठे है.. आज तक जान ही नहीं पाये है इनके महत्व को... इनको मनाने के महत्व को... हमारे मुनियों व योगियों के तात्पर्य को नहीं समझ पाये.... समझ पाये ही नहीं... क्योंकि तुम समझना ही नहीं चाहते है.... कभी कोशिश ही नहीं की... प्रयासित ही नही हुये तुम..... बस मद्यपान मे डुबे रहे.... नाच गाने मे डुबे रहे... जीवन की सत्यता से छुपते रहे...
  कायरों की तरह भागता रहे, और आज तक भाग रहें... बस भागने मे ही जीवन निकल रहा है.. और गुजर रहा है... और इसी तरह से जीवन खत्म हो जायेगा... फिर क्या बीबी रोयेगी... जीवन कभी प्यार से रहे ही नहीं... तब तो गाली देकर तुम्हें कोसती थी..... कहती थी कि मैने तुमसे शादि करके गलती की... मेरे किस्मत ही फूटे थे... जो तुमसे विवाह हो गया... और अब रो रही है ....रो - रो के बुरा हाल है उसका....
   रो तो रही है... क्योंकि अब जिम्मेवारियां इस पर है... आज तक तो तुम निभाते आ रहे थे... ..वह सब अब उसके सिर पर है... बच्चों का स्कुल, ना जाने क्या....
   रोना तो स्वाभाविक है ....भले ही वह कलह करती थी...झगडती रहती हो... पर रोना तो स्वाभाविक... जो इतने वर्षों साथ रहे... अहं था उसे कि तुम हो तब तक उसे कमी नहीं हो सकती है... वह चूरा चूरा हो गया... खत्म हो गया....
   यदि तुम्हारा शत्रु भी होता तो वह भी रोयेगा... क्योंकि शत्रुता खत्म हो गई... कौन अब उससे लडेगा... कौन शत्रुता करेगा... रोयेगा... पर.... फिर भी क्या कुछ समय के बाद स्थितियां स्वभाविक रूप से सामान्य हो जायेगी... और तुम्हें भुल जायेंगे.... क्या यही जीवन की पूर्णता है... क्या यही जीवन का सार है... बस खुंटी पर लेकर चार कंधों पर श्मशान की यात्रा करना ही जीवन है क्या..... .. मेरी आत्मप्रज्ञा मे कुछ शब्दों के सृजन हो रहा है... जो सत्यता से परिपूर्ण है... जीवन के गहरे रहस्य को संजोये बैठी है..
 !!! आखिर क्या , हासिल किया है इस जमाने मे मैने..
   बस तमाम उम्र ठोकरे हीे ठोकरे खाता रहा, श्मशान तक की यात्रा के लिए!!!!
     कितनी सत्यता से परिपूर्ण वाक्य हृदय कमल से प्रवाहित हुये... कुछ नहीं कर पाया मै जीवन मे.... कभी रंग रंगोली की तो कभी मदिरापान, तो कभी पत्नी से झगडा.. और कभी होली खेली बस इस तरह से ही जीवन व्यतीत किया और अंत मे चार लोगों के कंधों मे सवार होकर श्मशान की यात्रा के लिए चल पडा...
    तुमने कभी महत्वों को समझा नहीं... प्रकृति का ईशारों को समझा नहीं.... बार बार प्रकृति ने अवसर दिये.... पर तुमने केवल गलत मार्ग का चयन किया... तुमने प्रकृति ते निर्मित मार्ग का चयन ही नहीं किया.... बस अपनी हठ और अपनी बुद्धि से निर्मित मार्ग का चयन किया.... जिसमे तुम्हे पीडा है... दुःख है.. तकलीफ है... जबकि प्रकृति ने तो अनेक अवसर दिये.... वह तो माँ है... कोई माँ अपने बेटे को गलत राह पर चलता देखकर,उसके विनाश को नही देखना चाहता है... पर तुमने हठ किया.... अपने मार्ग पर चलने का... फिर भी कोसते रहते हो तुम प्रकृति को.. क्योंकि तुमने कभी स्वीकार करना नहीं सिखा है.....कभी स्वीकारता को स्वीकार किया ही नहीं... क्योंकि तुम्हें सबकुछ तुम्हारी बुद्धि को अनुसार चाहिए.... और परिणाम भी तुम्हारी बुद्धि को अनुसार चाहिए...जिसके कारण तुम दुःखी हो..
   यही बात तो समझा रहा हूं मै कि प्रकृति ने कई बार मौके दिये.... चाहे त्यौहार के रूप में हो... या किसी गुरू या माता पिता, मित्र या पत्नी को रूप मे हो.... पर तुम समझ नहीं पा रहे हो... माया के अधीन होकर तुम स्वयं का ही विनाश कर रहे..
 

   यदि तुम होली की दिव्यता को समझ सकते तो... तुम जीवन के आधे भाग मे पूर्णता की ओर कदम अग्रसर कर चुके होते है... ब्रह्ममय होने की ओर अग्रसर हो चुके होते... यदि वेदों व शास्त्रों का कथन सत्य है... कि... """अहं ब्रह्मस्मि"""अहं शिवोहम..... तो तुम कदम बढा चुके होते..
   क्योंकि हर प्रत्येक व्यक्ति ब्रह्म का ही एक रूप है.. और उसी ब्रह्म की चेतना उसमे विद्यमान है... और उस ब्रह्म से ही जन्मा है.. परंतु जन्म के बाद हम अपनी सीमित बुद्धि को अनुसार ही कार्य करते है.. कर्म करते है... और उसी के अनुसार ही फल भोगते है... पर एक बात आज तक समझ ही नही आई कि... जब शास्त्रों मे.... वेदों मे कहा गया है... अहं ब्रह्मस्मि.... तो व्यक्ति फिर ब्रह्ममय क्यों नहीं हो पाया.... यदि यह बात सत्य है तो... इसका अर्थ है कि मनुष्य के पास परमात्म का दिया हुआ ज्ञान है...  चेतना है... यति ब्रह्म है तो उसकी चेतना भी होगी... फिर व्यक्ति दुःखी क्यों है..
   क्योंकि उसने हर पहलु को अपनी बुद्धि को अनुसार आंकलन करके उसके परिणाम को पहले ही घोषित कर दिये होते है... जबकि परिणाम उसके विपरीत होते है..
  और होली को भी हमने नाच गाने, मौज मस्ती मनाने का त्यौहार मान लिया है.. रंगों को फेंकने का त्सौहार मान सकते लिया है...जबकि होली का महत्व ही अपने आप में जीवन में परिवर्तन लाना है.... जाग्रति लाना है...अपने जीवन को ऊर्जावान बनाना है... बेरंग रूपी जीवन को रंगमय करना है..... जीवन रूपी नाव से दुःख, दर्द, रोग, शोक, विरह,शत्रुता ,बंधन, पाप रूपी तुफानों पर विजय प्राप्त करना है....
   यह सब तभी होगा जब हम साधना रूपी पहियों को पकडेगें, और जीवन मे उतारेंगे.... जीवन को साधनारूपी रंग से पुरी तरह से रंग देंगे... होली का महत्व ही है साधनामय हो जाना
..साधना के रंग मे डुब जाना, इस कद्र खो जाना कि बाहर ती कोई सुधबुध  न रहे...
  तेरे रंगों मे इस तरह रंग चुका हूं.. कि.
बिन तेरे रहना भी अब एक पल मुश्किल सा है मेरा....
    इस तरह से रंग जाओ... पूरे जोर का साथ,पुर्ण शक्ति का साथ, जितना तुम ने साहस है उस पूर्ण साहस के साथ डुब जाओ, इस साधनारूपी रंग के सागर मे... चाहे तुम्हारी अस्थि रहे या न रहे... इसकी तुम चिंता मत करो, अस्थियां तो फिर आ जायेगी... इनकी तुम चिंता मत करो... बस रंगे जाओ.. पूरी तरह से रंग जाओ, और गहराई से रंगते जाओ.... कि कोई भी दाग.. जो अहं, क्रोध, मोह, मद्य, लोभ, इत्यादि के दाग इस रंग पे लग नही सके..... होली का अर्थ है रंग जाना... ताकि कोई रंग फिर लग ना पाये..... एक प्रेमिका की तरह... प्रेम के रंग जाना... जब वह रंग जाती है.. पूरी तरह से प्रेम मे तो फिर न तो उसे किसी सीमा के याद रहती है.., ना घर वालों के डांट ,का, ना ही लोगों के बोलने की परवाह, बस तो बस प्रियतम का छवि, नैन बसी, और उसके सिवा और कोई रंग उसे भाता  ही नहीं... क्योंकि वह डुब चुकी है, खो चुकी है, रंग चुकी है... रंगमय हो चुकी है.... बस हर घडी प्रियतम का नाम हृदय के कमल मे अंकित... उसके लिये तो उसका प्रियतम ही ईश्वर है.. और उसी के रंग मे जाती है... प्रेममय हो जाती है... फिर तो जमाना कुछ कहे... चाहे उसके प्रियतम के बारे मे कुछ कहे.. पर वह तो दिवानी है... उसे तो स्वयं की सुधबुध ही नही है... जिसे स्वयं की सुधबुध नही होती है.... वे ही तो सच्चे साधक या साधिका होती है... जो प्रेममय हो गये है वे ही तो तंत्र साधक होते है...
   क्योंकि उनका तो सबकुछ प्रियतम होता है... प्रेमिका होती है... और तंत्र रूपी सागर ही ऐसा है... बस डुब जाना है... खोते मारने की जरूरत नहीं है... बार,बार बस एक बार छलांग मार लो उसमे,,, फिर छोड तो समुद्र का हवाले, समर्पित कर दो, व७ स्वयं ही किनारे पे ले आयेगा... जब तुमने समुद्र पर विश्वास करना सीख लिया तो वह अवश्य तुम्हें किनारे ले आयेगा...
   बस तुम स्वयं को तंत्र पर छोड दो.. विश्वास के साथ... और तुम सही मे तंत्र का किनारे पहुंच जायेंगे....
  होली का अर्थ और महत्व यही है... स्वयं को खो देना.... रंग देना साधनारूपी रंग से,  तंत्ररूपी रंग से.... और उस प्रेमिका की तरह सुधबुध खो देना और प्रियतम का छली को आंखों मे बसा लेना...
    होली तो तंत्र का उच्चकोटि का मुहूर्त है... जिसमे तंत्र की विलक्षण से भी विलक्षण साधना में पूर्णता प्राप्त की जा सकती है... चाहे फिर वीर साधना हो, वेताल साधना हो, भूत सिद्धि साधना हो, या यक्षिणी और अप्सरा हो, या तंत्र की उच्चकोटि की साधना हो, होली का तंत्र मे बहुत बडा महत्व है... क्योंकि इसमे प्रकृति और परमपिता की समस्त ऊर्जा सम्पूर्ण ब्रह्मांड मे विस्तारित हो जाती है... और इस ऊर्जा के अपने अंदर समाहित करके जीवन को ब्रह्ममय बनाना है..... यदि स्वर्ग भोगना है तो मृत्यु के बाद क्यों...मृत्यु  के बाद  किसने देखा है... यदि भोगना है तो जीवन को ही स्वर्गमय बनाओ, आनंदमय बनाओ प्रेममय बनाओ.... साधनामय बनाओ...
     यही तो स्वर्ग है.. मृत्यु के बाद को स्वर्ग को किसी नही देखा, मेरी नजरों मे कपोलित बाते है... मृत्यु के बाद तीर्थ है मोक्ष... जीवन रूपी भार से मुक्ति... सभी बंधनों से मुक्ति, कर्मबंधनों सो मुक्ति.... इसलिए मृत्यु के बाद को स्वर्ग की ईच्छा को जोडकर जीवनरूपी स्वर्ग मे जीवन को सुखमय आनंदमय हो बनाओ, प्रेम के साथ, होली का साधनामय वातावरण को साथ... यही जीवन का सर्वथा है.... और यही जीवन की वास्तविक होली है... आप इसे समझे... यही मेरी कामना है
   (होली तंत्रम~निखिल ठाकुर)
  आप सबका अपना
निखिल ठाकुर...

Thursday, 9 March 2017

अज्ञात रहस्यमय तंत्रों की खोज


           
                                                 !!!!गुप्तसाधना तंत्र!!!!!
       अभी तक हमने पढा कि ...क्यों कुलाचार के महात्म्य को गोपित कर दिया...
               और बहुत सी जानकारियों को...अब उससे आगें..

                     !!!!श्रीशिव उवाच:---
                श्रृणु देवि प्रवक्ष्यामि सारात्सारं परात्परम् |
                तव स्नेहान्महादेवि दासोअस्मि तव सुन्दरि |
                तत्कथां कथयिष्यामि सावधानावधारय ||4||

!!! भगवान श्रीशिव ने कहा:--
          हे देवि ! मैं आपके निकट सारतर परम तत्वभूत गोपनीय बात को बता रहा हूं ,इसे श्रवण करें | मैं आपका चिरदास हूं | हे सुन्दरि! आपके प्रति मेरी अचला श्रद्धा है,मैं उस श्रद्धा के वशवर्ती होकर गोपित कुलाचार - महात्म्य का वर्णन करूंगा | इस कुलाचारीय बात को गोपित रखना चाहिए | अतः इस कथन को अत्यंत सावधानी के साथ श्रवण करें..||4||

  अधिकतर मैने देखा है कि लोग कुलाचार से भय खाते है...क्योंकि उनकी दृष्टि से कुलाचार गलत है...उसमे मैथुन होता है...पंचमकार होता है..परंतु कुलाचार तो दिव्यता की अवस्था ....जिसे स्वयं भगवान ने गुप्त रखा था...क्योंकि कुलाचार के भाव को कोई प्राप्त कर गया तो वह मुक्त हो जाता है सारे बंधनों से...पापों से...कर्म बंधनों से...उसके लिए कोई बंधन नहीं रहता है...वह उन्मत की अवस्था को प्राप्त कर लेता है..और यहां स्वयं परम पिता कह रहे है ....कि ये प्रिये ....तुम मुझे प्राणों से भी  प्रिये है...कितना प्रेम है परम पिता का माँ के प्रति...अपनी पत्नी के प्रति .....और इसी प्रेम के वशीभूत होकर इस परम गोपनीय कुलाचार के महात्म्य को... रहस्य को बता रहा हूं.. इसे गोपित ही रखना..... और इसे पूर्ण एकाग्रता और निष्ठा के साथ सुनो....
    यहां गोपित का प्रयोग किया माँ के लिए परमपिता ने.... तो आप समझ सकते है कि कितना महत्वपूर्ण तंत्र है... मार्ग है... दिव्यभाव है कुलाचार..... और कई तंत्र ग्रंथों मे यह बताया गया है कि कुलाचार से बचकर श्रेष्ठ मार्ग कोई है ही नहीं... इसलिए... आप सब जो इस तंत्र को पढ रहे है.... सुन रहे हैं तो आप सब भी इसे गोपित रखे... और ध्यान पूर्वक इस तंत्र को समझे...और जाने....

           कुलाचारं महाज्ञानं गोप्तव्यं पशु सकंटे |
          प्रगोप्तव्यं महादेवि स्वयोनिरिव पार्वती ||5||

  हे पार्वती! यह कुलाचार महाज्ञान का साधन है | जो उस कुलाचार के अनुसार साधन करते है, वह तत्वज्ञान का लाभ कर सकते हैं | इस महाज्ञानप्रद कुलाचार को सर्वदा पश्र्वाचारी के निकट स्वीय योनि के समान गोपन करें ||5||

   यहां पर परमपिता ने बहुत महत्वपूर्ण  बात कही है... क्योकि जब साधक कुलाचार से साधना रत होता है तो उसका तादात्म्य प्रकृति का साथ हो जाता है और....वह ब्रह्मांड के रहस्य को जान लेता है.. और हर प्रकार से सब ऐश्वर्यों को भोगते हुये... ब्रह्मवेता बन जाना है ....ब्रह्मज्ञान को प्राप्त कर लेता है.... ब्रह्मतत्व को प्राप्त कर लेता है... इस कुलाचार महाज्ञान को गुप्त रखना चाहिए... जिस प्रकार स्त्री अपनी योनि को गुप्त रखती है... दूसरे के समाने प्रदर्शित नहीं करती है... उसी तरह इस महाज्ञान प्रद कुलाचार को धूर्त लोगों,जो पशुवृति से युक्त हो.. पापी हो... दुराचारी हो... उसके समक्ष इस महाज्ञान को स्वयं की योनि के समान गुप्त रखना चाहिए.. क्योंकि यह महाज्ञान है.... ब्रह्म को प्राप्त करने की स्थिति ...शिवमय होने की कला है... इसीलिए इसे दिव्य भाव कहा गया है ...सबसे श्रेष्ठ भाव कहा गया है... तंत्र का मूल कहा गया है..

         !!वेदागमपुराणानि वेदशास्त्राणि पार्वति |
          एतन्मध्ये सारभूतं कुलाचारं सुदुर्लभम् !!6!!

 !! हे पार्वती! वेद, आगम, पुराण, वेदान्तादि --ये सभी सारभूतशास्त्र हैं एवं इन सभी में भी कुलाचार सारतम है| अतः यह परम दुर्लभ है !!6!!

  यहां पर वेद आगम, पुराण,वेदान्तादि ..को सभी का सारभूत शास्त्र बताया गया है... क्योंकि इनके बिना हम अधूरे है.. पुराण वास्तव में हमें भगवान की लीला पढने का ज्ञान के प्राप्त करने के लिए नहीं है... बल्कि पुराणों के अध्ययन से यह ज्ञात हुआ होता है हमें कि नीति क्या है...नियमों का ज्ञान के प्राप्त होता है... नीति आचार व्यवहार का ज्ञान प्राप्त होता... आग शास्त्र तो तंत्र की महत्वपूर्ण शाखा है.. और कलियुग है आगम शास्त्र ही सबसे महत्वपूर्ण है...प्रभाव दिखाने वाला शास्त्र है... सिद्धियों को प्राप्त करने का मार्ग है... वेद तो ईश्वर का वाणी है... जिसमे मंत्रों का वर्णन है... ईश्वर के निराकार के रूप का वर्णन है.. वेदों को का मुख्य ध्येय तो यही है.... कि तुम मनुष्य बनो...कि तुम मानव तो बनो.... जब तुम यह नहीं बन सकते है तो तब तक तुम अपूर्ण के हो... कितनी सटीकता की बात कही वेदों में... और बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही है...

         !!वक्त्रकोटिलहस्त्रेस्तु जिह्वाकोटिशतैरपि |
          कुलाचारस्य महात्म्यं वर्णितुं नैव शक्यते!!7!!

!! सहस्त्रकोटि वदन एवं शतकोटि जिह्वाओं के द्वारा भी कोई इस कुलाचार के महात्म्य का वर्णन नहीं कर सकता है!! 7!!

    कुलाचार तो गुप्त है.... अत्यंत गुढ है... क्योंकि इसकी साधनायें और मंत्र किसी भी पुस्तक मे नहीं मिलते है... और न ही किसी जगह मिलेंगे.... कुलाचार से संबंधित जितने ग्रंथ है.... उनमें गुप्त रूप मंत्र वर्णित है... क्योंकि मंत्र को वहां से गुप्त विधि के माध्यम से निकाले जाते है... तंत्र ग्रंथ जितने भी है... उनमें स्वाभाविक रूप से मंत्र या साधना विधि पढने को नहीं मिलती है... जबकि मंत्र उसके अंदर दिये होते है.. और विधि भी... पर आम मनुष्य नहीं समझ पाता है... उसके लिए वह संस्कृत का मात्र एक ग्रंथ है... पहले तो मेरी स्थिति ऐसी थी... एक दिन गुरू जी ने बताया कि मंत्रों का निर्माण कैसे होता है... और तंत्र ग्रंथों मे मंत्र और विधि किस तरह से अंकित होती है.. जबकि हम समझ नहीं पाते है.. कुलाचार को दिव्य और गुप्त मार्ग कहा गया.. कुलाचार की साधनायें भी बहुत गुप्त है... और उससे कठिन और गुप्त तो कुलाचार की साधनाओं का क्रिया है.. जो आम व्यक्ति नहीं कर पाता है| और जब साधक कुलाचार मे प्रवेश करता है... भैरवी चक्र मे प्रवेश करता है तो उसका सौभाग्य जाग्रत हो जाता है.. और वह भैरवी पुत्र बन जाता है... ईश पुत्र हो जाता है.. और परमपिता की कथन सही कोटि बदन क्यों न हो.... और शत जिह्वा भी क्यों न हो.. तब भी ले कुलाचार के महात्म्य का वर्णन करने मे असमर्थ है.... असमर्थ है वे क्योंकि इसे शब्दों में नहीं बांधा जा सकता है... जिसे बांधा नहीं जा सकता है... उसका वर्णक करना असंभव है... और कोई टिप्पणी करे तो वह मूर्खता है |क्योंकि शब्द सीमित दायरे तक ही उपयोग होते. .. और असीमित को बांधना शब्दों के अंदर शक्ति नहीं है... और कुलाचार असीमित है.. गुढ से गुढ.. जिसका अथाह लगाना भी असंभव है|

       !!किञ्चिन्मया तु चापल्यात् कथयामि श्रृणुष्व|
        शक्तिमूलं जगत् सर्वं शक्तिमूलं परन्तु!! 8!!

 !! हे देवि! आपके निकट कुलाचार के महात्म्य का वर्णन करना मेरी चपलता मात्र है| फिर भी आपके निकट यथाशक्ति किञ्चिन्मात्र इसका कीर्तन कर रहा हूं, श्रवण करें | शक्ति ही अनन्त जगत के आदिकारण है एवं शक्ति ही समस्त तपस्याओं का मूल है!! 8!!

   यहां पर परमपिता सदाशिव जी ने बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही है... कि शक्ति जगत के आदिकारण है... और शक्ति ही समस्त तपस्याओं का मूल है.... यह बहुतही महत्वपूर्ण बात कही है... क्योंकि बिना शक्ति का जगत कुछ भी नही है... बिना प्रकृति का सृष्टि नामित मात्र पाषाण के समान है... पत्थर के समान ही है.. और शक्ति का बिना शिव... शव है.. क्योंकि शक्ति संचार करता है.. संचलयमान कर्ता है... कारण है... और शिव शक्ति का विस्तार करने वाले... शक्ति का साथ लयमान होकर आदिपुरूष बनकर सृष्टि का सृजन कार्य के करते है.. जिस प्रकार से पुरूष सम्भोग करके स्त्री गर्भवती हो जाती है... और एक नयी सृष्टि को जन्मदेती है.. एक नयी पिंड को जन्म देती है.. उसी प्रकार से शक्ति और शिव मिलकर इस सृष्टि को संचलयमान करके है.. और शिव की इस क्रिया मे शक्ति अपना पूर्ण सहयोग देती है. और फिर शक्ति का माध्यम में सृष्टि मे कुछ नवीनतम घटित होता है...और भैरवी चक्र का रहस्य यही है.  कुलाचार का महात्म्य यही है.. पर इसे गहन रूप से समझना कठिन है| हर साधना, जप तप, का मूल ध्येय ही शक्ति है... |

      !!शक्तिमाश्रित्य निवसेद् यत्र कुत्राश्रमे वसन्|
     साधकस्यार्चितां शक्तिं साधकज्ञान कारिणीम्!! 9!!

  !!साधक गण शक्ति का आश्रय कर जिस किसी भी आश्रम में निवास क्यों न करें, उसी में रहकर वे सिद्धि लाभ कर सकता है|साधकगण शक्ति का अर्चना करने पर ही, वह शक्ति साधक को ज्ञान प्रदान करता है!! 9!!

 साधक साधनारत होकर जिस भी आश्रम मे रहे ...कहीं भी साधना पत रहे.. किसी भी अवस्था मे रहकर साधनारत रह रहा हो अभी तक तो उसे उसी मे रहकर सिद्धि का लाभ प्राप्त होता है.. और लाभ प्राप्त कर सकता है कि जब कौलाचार से साधक साधना पत रहता है. या करता है तो उसके लिए कोई भी नियम बाधित नहीं होता है...वह साधक निर्बाधित होती है.. और उन्मतरूप होकर साधनारत रहता है.. क्योंकि जब कौलाचार से दीक्षा हो जाती है ..तो धीरे धीरे साधक दिव्यभाव मे प्रवेश कर जाता है और दिव्यभाव केवल एक शिशुवत की अवस्था है, जिसने माँ के गर्भ से जन्म तो लिया है..पर वह सब से अनभिज्ञ है, और अपनी मस्ती मे रहता है, न पाप का भय, न चिंता ,न खुशी, न आनंद, न पुण्य की चिंता.. जब मन किया रो दिया जब मन किया हंस दिया यही तो दिव्यता का आनंद है..., अहं, क्रोध, केवल आनंदित अवस्था यही दिव्यभाव की अवस्था है... परमहंस की अवस्था हो.. और वामाखेपा, परमहंस रामाकृष्ण, आदि अनेक योगियों ने इस अवस्था के प्राप्त किया है...|आप सब उनके बारे मे अच्छे से जानते भी होंगे... पढा भी होगा आप सपने यही अवस्था है... कुलाचार की... मां और पुत्र को प्रेम की... पिता और पुत्र को स्नेह की. |साधक के साधने पर और उसकी अर्चना करने पर ही वह शक्ति व सिद्धि साधक को ज्ञान प्रदान करती है|

    !!इहेलोके सुखं भुक्त्वा देवीदेहे प्रलीयते |
    साधकेन्द्रों महासिद्धिं लब्ध्वा याति हरेः पद्म!! 10!!

!!जो साधक शक्ति की आराधना करते हैं, वह इस लोक में विविध प्रकार के सुखों का भोग कर, देवी के देह में प्रलीन हो सकते हैं एवं वह साधकेन्द्र शक्ति साधना के बल से महासिद्धि का लाभ कर, अन्त में हरि पद को प्राप्त करते हैं!! 10!!

  महादेव के प्रत्येक कथन सत्य और यहां यह स्थिति देखकर मेरे नेत्रों से अश्रु की धारा आने के हो.. रहे... जो स्वयं कुलाचार की अधिष्ठात्रि है.. जो स्वयं इस जगत की माँ है... आदिशक्ति है... जिससे समस्त शक्तियों का पादुर्भाव हुआ है... वह स्वयं अपने पति को मुख से यह दिव्यता का ज्ञान के को समन रही है.. कितना प्रेम है माँ का परमपिता से प्रति.... स्वयं अधिष्ठात्रि होकर परमपिता से सान्निध्य से ज्ञान प्राप्त कर रही... ज्ञान के तो एक बयाना है.. दरअसल माँ तो परमपिता की सान्निध्य पाना चाहती है... उनकी दिव्य वाणी को सुनना चाहती है.... परमपिता कहे रहे कि जो साधक शक्ति का साधना करता... तुम्हारी साधना करता है.. प्रिये वह इस धरा पर अनेकों प्रकार के सुख, ऐश्वर्यों, आनंदों को भोग करता है, और अंत मे वह तुम ने विलीन हो जाता है और साधक शक्ति साधना के बल से महासिद्धि को प्राप्त कर लेता और अन्त मे  वह साधक हरिपद को प्राप्त कर लेता है... विष्णुतुल्य हो जाता है... विष्णु के समान हो जाता है| कुलाचार मे सबसे अधिक महता शक्ति तो दी गई है.. और इसमे शक्ति का साधना की जाती है.. वाममार्ग मे तो स्त्री को शक्ति का स्वरूप मानकर उसकी पूजा की जाती है.. और पुरूष को भैरव मानकर पूजा की जाती है... और तब जाकर साधना को करते है... और इसमे लिंग और योनि पूजन का महत्व अत्याधिक है.. बिना शक्ति के कुलाचार अधुरा है... वाममार्ग से.. और हर मार्ग मे शक्ति का साधना होती है.. दक्षिणी मार्ग मे श्रीविद्या, दसमहाविद्या, त्रिशक्ति साधना, योगिनी इत्यादि शक्तितत्व की साधना होती है.. और कुलाचार के पूर्व मत में तो माँ को साक्षात मानकर उसके सम्मुख साधना विशेष चक्र यंत्र का पूजन, मुद्रा और औपचारिक मैथुन के रूप मे किया जाता है... शाक्तमार्ग तो पूरा का पूरा शक्ति साधनाओं का है|कुलाचार का पूर्ण व्याख्या हयग्रीव जी ने की है... और उनसे पहले और उनसे बाद आज तक कोई कुलाचार को सही रूप से व्याख्या नहीं कर सका... उनके द्वारा रचित कुलार्णव तंत्र इसका प्रमाण है.. पर आज के समय यह तंत्र पूर्ण रूप से मिलना बहुत कठिन है.. और हमारे गुरू जी के अनुसार कुलार्णव तंत्र की प्राचीन पांडुलिपि हरिद्वार मे एक पंडित जी के पास है.. जो पूर्णरूप से संस्कृत में. |

      !!पञ्चाचारेण देवेशि कुलशक्तिं प्रपूजयेत |
     नटी कपालिका वेश्या रजकी नापिताड्गंना!! 11!!

!!हे देवेशि! पञ्चाचार क्रम से कुलशक्ति की अर्चना करें|नटी ,कापालिका कन्या, वेश्या, रजकी, नाई पत्नी आदि ||1!!

यहां पर सदाशिव भुतबाबन कह रहे है कि, साधक को पंचोपचार से कुलशक्ति का पूजन करना चाहिए |और साथ ही साथ नवकन्या के बारे मे बता रहे है....तंत्र मे कन्या का बहुत बडा महत्व है... कन्यापूजन करना तो सब पूनों से ऊपर बताया गया है.. और परम पिता ने 11/12 श्लोक मे यही बताया हैं... वनकन्या के नाम... और इनका महता को.... कन्या पूजन करने से ही सिद्धि प्राप्त होती है... कुमारी तंत्र तो कन्या तंत्र है....कौलाचार मे कन्या का महत्व अत्याधिक है... क्योंकि चक्र को चारों और आठ कन्या होती है... और नवमी स्वयं माँ चक्रेश्वरी होती है...|

      !!ब्राह्मणी शुद्रकन्या च तथा गोपालकन्यका |
      मालाकारस्य कन्या च नवकन्या: प्रकीर्तिता:!!12!!
!!ब्रह्माणी, शुद्रकन्या,गोपकन्या,एवं मालाकार-कन्या --ये ही "नवकन्या"के नाम से जानी जाती है!! 12!!

 ये नवकन्या के नाम है... और यही कन्याये ही नवकन्या के नाम से जाना जाती है.. और इनके नाम का वर्णन कई तंत्र ग्रंथों मे मिलता है... और कुमारी तंत्र तो कन्या तंत्र का रूप है... और उसमे तो माँ कालिका का ही वर्णन है.. और कुमारी कवच,कुमारी स्तोत्र, कुमारी तर्पणात्मक स्तोत्र, सहस्त्रनाम, कुमारी भेद, कुमारी दानक्रम फल, कुमारी पूजा प्रयोग एवं ध्यान आदि का वर्णन है... और नवकन्या के नाम के बारे मे कुमारी तंत्र मे कहा गया है.. जो
" कुमारी तंत्र"षष्ठःपटल:..कुलाचार कथनम मे 21/22वे श्लोक मे भी परमपिता ने नवकन्या के बारे मे कह है..ै.. उनके नामो को बताया है..
        "ब्राह्मणस्ताम्रपात्रे च मधुमद्यं प्रकल्पयेत|
नटी कापालिका वेश्या रजकी नापिताड्गंना ||21||
          ब्रह्माणी शुद्रकन्या च तथा गोपालकन्यका |
       मालाकारस्य कन्या च नवकन्या प्रकीर्तिता:||22||

ब्राह्मण ताम्रपात्रस्थित मधु को भी ही मद्य रूप में कल्पना करें, |नटी, कापालिका, वेश्या रजकी,नापितागंना,ब्राह्मणी,शुद्रकन्या,
गोपकन्या एवं मालाकार कन्या -ये नवकन्या या ग्रहणीया कुलयुवती के रूप में कहीं गयी है!! 21/22!!कुमारी तंत्र!!
    कुमारी की महता का पता तो हमे कुमारी तंत्र से ही चलता है.. और अन्य तंत्र मे भी कुमारी के बारे मे बताया गया है... उनके से प्रमुख तंत्र कुब्जिकातंत्र...
             कुब्जिकातंत्रे ---
अन्नं वस्त्रं तथा नीरं कुमार्य्यै ये ददाति हि|
अन्नं मेरूसमं देवी जलं च सागरोपमम्||6!!
वस्त्रैःकोटिसहस्त्राब्दशिवलोके महीयते |
पूजोपकरणानीह कुमार्य्यै ये ददाति हि|
सन्तुष्टा देवता तस्य पुत्रत्वे सानुकल्पते ||7!!
 
   कुब्जिका तंत्र मे कहा गया है कि जो मनुष्य कुमारी को अन्न, वस्त्र, तथा जल देता है, उसका अन्न पर्वत के समान तथा जल समुद्र का समान असीम हो जाता है|वस्त्र देने से खरबों वर्षों तक शिवलोक में निवास करता है| जो कुमारी को पूजोपकरण देता है उससे संतुष्ट होकर देवता उसके पुत्र रूप मे उत्पन्न होते है |
  इत्यादि अनेक ग्रंथों मे कुमारी पूजन का महत्व बताया गया और गुप्ततंत्र मे इनके नाम और भेद बताये है... इसलिए प्रत्येक साधक को एक बार अपने जीवन में कुमारी पूजन अवश्य करना चाहिये...
     
           !!विशेषवैदग्ध्ययुता: सर्वा एव कुलाडंगना |
         रूपयौवनसम्पन्ना शीलसौभाग्यशालिनी!!13!!

!!विशेषतः वे, जो विशेष रूप से गुणशालिनी है, ऐसी सर्वजातिय रूप यौवन सम्पन्ना, सुशीला एवं सौभाग्यशालिनी कन्या का भी "कुलांगना "के रूप मे ग्रहण किया जा सकता है!!
    ..  यहां पर महादेव भुतबाबन बता रहे है कि... जो विशेष रूप से गुणों से युक्त हो,सभीजातियों मे यौवन से युक्त हो, सुशील और सौभाग्यशालिनी कन्या हो... तो उसे भी कुलांगना के रूप मे ग्रहण कर सकते है... और उसका पूजन कर सकते है... क्योंकि कुमारी पूजन की महता है परम गोपनीय है... अधिकतर शास्त्रियों व पंडितों को ज्ञात हुआ नहीं होता है...क्योंकि कन्या के महत्व तो जानने के लिए प्राचीन तंत्र ग्रंथों रा अध्ययन करना होगा, समझना होगा.. सुयोग्य गुरू के सान्निध्य मे रहकर तंत्र को सिखना होगा... तभी हम तंत्र के स्वरूप को समझ सकेंगे और जान सकेंगे.. तंत्र अपने आप में एक गोपनीय विद्या रही है.. और अधिकतर कुछ धूर्त तांत्रिकों ने तंत्र को बिना जाने समझे ही इसका गलत प्रचार सार कर डाला है.. उनके से तो कुछ शास्त्री भी है... जो कथावाचक है.. कुछ अध्यात्म के खट्टर संत, तो कुछ पंडित आदि, और उन्होने लोगों के समक्ष तंत्र को एक भयावह रूप से प्रदर्शित किया और लोगों को तंत्र से दूर रहने का आदेश... और धीरे धीरे तंत्र का गलत रूप हमारे समक्ष ऊपर कर आया और आज स्थिति ऐसी हो गई कि गली गली मे तंत्र के ठेकेदार बनकर बैठे है... लोगों की जिन्दगी के खिलवाड कर रहे है.. जागो और तंत्र का सही रूप को जानो और समझो..
           
       !!पूजनीया प्रयत्नेन ततः सिद्धिर्भवेद् ध्रुवम्|
        सत्यं सत्यं महादेवि सत्यं सत्यं न संशय!!14!!

 !!उक्त कुलांगनाओं की पूजा यत्नपूर्वक करें |इस प्रकार अर्चना के द्वारा साधक को निश्चित ही सिद्धिलाभ होता है| हे महादेवि! मेरे इस वाक्य को सत्य, सत्य जाने, इसमे कोई संशय -मात्र व करें!!14!!
         परमपिता कह रहे है कि! मेरे प्रत्येक वाक्य सत्य है... इसमे किसी प्रकार का संशय न करे.. कुलांगनाओं के को पूजन मात्र से ही साधक को सिद्धि लाभ प्राप्त होता है.. जो साधक प्रयत्नपूर्वक उपरोक्त बताई गई कुमारियों का पूजन अर्चना करता है उसे निश्चित ही सिद्धि लाभ प्राप्त होते है|..
 कुमारी पूजा से साधक करोड गुना फल प्राप्त करता है, यदि कुलपंडित फूलों से भरी अंजलि कुमारी को देता है तो स्वर्णमय करोडों मेरूपर्वतों के समान कुमारी को दान देने का फल तत्काल प्राप्त कर लेता है, जिसने एक कुमारी को भोजन करा दिया उसमे त्रैलोक्य को भोजन करा दिया......इसलिए साधना के बाद साधक को किसी कन्या को भोजन कराना चाहिए...
 बृहन्नीलतंत्र"""मे लिखा है कि ---
महाभयातिदुर्भिक्षाद्युत्पातास्तु कलेश्वरी|
दुःखस्वप्नभयमृत्युच्श्र ये चाहिये च समुभ्दवा:!!51!!
कुमारीपूजनादेव न ते च प्रभवन्ति हि|
नित्यं क्रमेण देवशि पूजयेद्विधिपूर्वकम||52||
ध्नन्ति विघ्नान्पूजिताच्श्र भयं शत्रुन्महोत्कटान्|
ग्रहा रोगा: क्षयं यान्ति भूतवेतालपन्नगाः||53!!

बृहन्नील तंत्र मे कहा गया है कि, हे कुलेश्वरी, महाभय, दुर्भिक्ष आदि उत्पात, दुःस्वप्न्न, मृत्यु तथा जो अन्य भारी उपद्रव होते  हैं, वे सब कुमारी पूजन करने से अपना प्रभाव नहीं दिखा पाते |हे देवेशि! क्रम से विधिपूर्वक नित्य ही कुमारीपूजन करना चाहिए |कुमारी पूजन करने वाले मदोत्कट शत्रुओं और विघ्नों को नष्ट कर देते हैं|ग्रह,रोग भूत, बैताल, भी इससे नष्ट हो जाते है|...
अब तो समझ आ गया होगा... कितना महत्वपूर्ण है कुमारी पूजन और कुलाचार... जितने हो सके मैने निखिल ठाकुर ने प्रयास किया इस तंत्र को लिखने का..... और इस तंत्र की व्याख्या करने के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं.. फिर भी माँचक्रेश्वरी ने मुझे इस कार्य के लिए चुना तो माँ की हृदय से आभार प्रकट करता हूं... जो कुछ इसमे अच्छा लगे व७ मेरी माँ और गुरदेव की कृपा है... जो कुछ कमी रह गई वह मेरी त्रुटि है...
!!इति गुप्तसाधनतंत्रे पार्वतीशिवसंवादे प्रथमः पटलः!!
!! गुप्तसाधनतंत्र मे प्रथम पटल समाप्त!!
आप सबका अपना प्यारा सा
निखिल ठाकुर
!!!!!!!!!सिद्धहिमालय सिद्धपीठ!!!!!!!!!!!

Monday, 6 March 2017

अप्सरा साधना

शशिदेव्य अप्सरा साधना 
प्रेम..... हां प्रेम...... जो जीवन को  पूरी तरह से आवलोकित कर देता है..... प्रेम की परिभाषा ही अपने आप में रहस्यमय है और उससे रहस्यमय तो प्रेम है... जिसके ऊपर लिखने के लिए शब्द भी कम पड जाते है... 
    प्रेम की पराकाष्ठा ही अपने आप में अदभुत है... जहां मैं नहीं रहता है.... सिर्फ प्रेमिका का ही रूप रहता है... उसकी स्वर्णिम बाते व पल... जो गुजारा होते है.. वोही रोम रोम मे होती है... बस सुधबुध ही नहीं रहती है... 
   बस आंखों के सामने वोही रहे.... यदि एक पल के लिए ओझल भी हो जाये तो दिल मे क्या गुजरती है..... मानों उसकी जिन्दगी ही उससे छीन गई हो  ....वह एक बेजान सा है गया है... मानो जिंदा लाश सा हो..... 
   प्रेम..... एक पागल की अवस्था.... जिसमे उसे किसी भी वस्तु की सुधबुध नहीं रहती है... बस अपनी मस्ती.... और अपना ही अंदाज.... और अपनी प्रेमिका का चेहरा और उसके रंग मे रंगे रहना.... 
   पागल की अवस्था ही अपने आप में निस्वार्थ प्रेम की.....जिस मे न वासना होती, न किसी वस्तु की चाह और न ही विषयासक्ति..... न ही लोभ.... बस निस्वार्थ प्रेम.... और अपनी प्रियतमा का साथ... और उसके देखते रहना और उसमे ही खो जाना..... कितना आनंदित प्रेम है..... कितना निस्वार्थ प्रेम है... जो परमसता की शक्ति को अपने आप में बांधने मे सक्षम है.... और उस प्रेम से कोई भला कैसे बच सकता है... चाहे वह यक्षिणी हो ....या स्वयं अप्सरा हो.... ...
    प्रेम जब आकर्षण से रहित हो जाये..... जब उसके प्रति सम्मान जाग जाये...जब उसमे डूब जाये.... और उसके सिवा कुछ नही है उसके जीवन.... तो फिर सभी मंत्र फिके  ..हो जाते है... और प्रेम महामंत्र चल पडता है.... और उसमे बंध जाती है.... यक्षिणी व अप्सरा..... क्योंकि प्रेम अपने आप में महामंत्र है.... जो परमपिता और मां को पुत्र को समीप लाती है.. ईश्वर के प्राप्त करने का मार्ग केवल प्रेम है.. क्योंकि जब हृदय कमल प्रस्फुटित होता है... जब प्रेम रूपी बीज का प्रस्फुटन होता है तो.... तब कुछ शेष नहीं रहता है..... न वासना, न ही किसी वस्तु का लालसा... न सम्भोग की कामना, न मैं और तुम.... केवल... केवल एकाकार की स्थिति और अवस्था... तुम ही मै हूं... और मैं ही तुम हो.... 
   यह भाव अद्वितिय प्रेम की... जो आलोकिक है... जो देखने मे करोडों मे से किसी एक प्रेमी युग्लों मे मिलता है... 
     प्रेम मे सब भाव अपने आप प्रस्फुटित हो जाते है..... न बडा न छोटा...... प्रेम मे कभी ऐसा भाव आता है नहीं कि तुम अधिक करते हो... और वह कम......जहां यह भाव आता है़...वहां आकर्षण आता है... वह आकर्षण ही होता है.. मेरी नजरों से... क्योंकि प्रेम तो सम दृष्टि का भाव.... समानता का भाव.... 
   यदि एक पीडित है तो दूसरा उससे कई अधिक पीडित होता है......क्योंकि वे दो शरीर एक प्राण है..... प्रेम पीडा के एक एक शब्द झकझोर देता है एक दूसरों.... क्योंकि कोनों एक प्राणमय हो गये है... और जब एक आंखों से दूर चले जाये तो मानों उनके प्राण ही चल गये है... और जब तक उसके दीदार न हो तो हृदय व्याकुल रहता है... न भूख का ख्याल, न प्यास का... और न अन्य किसी से बात करने का... क्योंकि जब तक वह न आये तो तब तक प्राण शरीर मे वापिस नहीं आ पाते है... 
   प्रेम के एक एक शब्द..... वे शब्द... जो आज भी मुझे झकझोर देते है.... कि तुम बिन मुश्किल है जिन्दगी गुजारना.... तुम बिन हम रहेंगे कैसे.... बहुत झकझोर देते थे उसके वे शब्द... 
  न जाने क्या रिश्ता था उस लडकी से... पर जितना बुरी कहूं... पर उतना वह याद आती है... और आज भी मेरे हृदय की धडकनों मे धडकती है.. मैने अपने जीवन में उतना किसी देवी देवता या भगवान का नाम नहीं जपा होगा... जितना झांसी का नाम अपने हृदय मे लिया है... सच्चे हृदय... न जाने कितना तनहा हूं.... मैं.... उसके बिना... कितना मुश्किल है... यदि प्रकृति को बदलने की शक्ति मुझ मे होती... यदि मुझे अपनी शक्तियों का प्रयोग करने की आज्ञा  होती तो शायद ने बदला देता वो पल.... जिस पल हम दोनों दूर हुये... 
   कितना रोये है तन्हां रातों में.... और आज भी तुम जिंदा हो... तुम्हारा प्यार जीवित है... मेरे हृदय मे... मेरी लेखनी में.... मेरे शब्दों... मेरी साधनाओं... नहीं भुल पाया हूं... तुम्हें... आज तक... और न ही भुल पाऊंगा.. 
   और झांसी को प्रेम से ही प्रेम को सही रूप से समझा.. और जाना... जो निस्वार्थ हो... जिसमे कोई कामना न हो.... न वासना हो... न विषयासक्ति हो.. क्योंकि देना जानता है.... छिनना नहीं... प्रेम का अर्थ है त्याग.... अपनी प्रिय वस्तु का त्याग.... तभी प्रेम की प्राप्ति होती है....कृष्ण राधा से प्रेम करते थे... परंतु कर्तव्य पालन के लिए तैयार उन्हें... अपनी प्रिय राधा से दूर होना पड़ा ......

   मीरा ने कृष्ण के प्रेम पाने के लिए सम्पूर्ण महलों की सुख सुविधा व उपभोगों का त्याग किया.....प्रेम का सही अर्थ है त्याग..... और जब उन अप्सरा का समाजस्य किसी सत्य प्रेम तत्व से युक्त पुरूष से होता है... तो उन्हें भी त्याग देना पडता है.... अर्थात अपने लोक से दूर अपने प्रेमी के साथ रहना... और उसके प्रेम मे खोये रहना.... और जीवन भर उसके प्रेम मे जीवन यापन करना.... और प्रेमी की बात का मान रखना.... 
   कितना चीर देते है... हृदय को यह शब्द जो मालुम और भोलेपन वाले मुख और आवाज से बोले होते है.. कि तुम मुझे छोड़कर तो नही जाओगे... मुझसे दूर तो नहीं जाओगे.....तुम्हे पता है न तुम बिन मैं नही रह पाती.... कितना.... मेरा हृदय को झकझोर देते थे.. और मुझे अंदरों अंदर तक छली कर देते थे.... और आंखों से आंसू आ जाते थे.... और उसकी हर बात को दिल सहर्ष स्वीकार करता था.... 
   निखिल तुम मंत्र तंत्र को छोड दो, अपनी साधना को छोड दो.... अपने गुरू को... उसके एक कहने पर वह सब छोडने के लिए हृदय तैयार हो जाता था.... और उसको दिये वे वचन... क्यों हृदय उसके बिना आज भी पूजा से तपता है... क्यों तडपता है.. लगता है... कि आज भी अकेला हूं.... जब से तुम गयी है तो केवल एक वोही तो थी जिसने मुझे सम्भाला है   
     ...वह अप्सरा.... जो प्रेम की पराकाष्ठा है.......जिसके ऊपर शायरी करने के लिए शब्द कम पड जाते है... जो गजलों की गजल है... शायरों का अनुसरण ख्वाब होता है.....जिसके रूप व सौंदर्य... जो अनुपम है... अद्वितिय है.... और तराशा हुआ बदन मानो.... बनाने वाले ने उसके बनाने के लिए विशेष रूप अवकाश लिया हो... और पूरी फुर्सत से बनाया है.... और बनाना वाला भी उसमे खो गया हो....... चद्रंमा ने तो अपनी पूरी की पूरी चमक व चांदनी उस पर उडेल दी है... ....वह कमर... जो अपने आप में लचकदार और पतली है...... उन्नत वक्षस्थल... और हर जगह से तराश कर बनाया गया तन.... अंग... जो... यदि यह साकार रूप मे इस धरा मे विचरण करें तो... जितनी भी सौंदर्यवान स्त्री है.... वे इसे देखकर अपने आप में लज्जा से झुक जाती.... और इससे ईर्ष्या जरूर करती.... क्योंकि मदहोश कर देने वाला सौंदर्य..और  मंत्रमुग्ध कर देनी वाली मुस्कान .... .... वह.. और बडा से बडा तपस्वी अपनी तपस्या को छोड़कर उसे पाने के दौड़ता... ...अब समझ आ रहा था कि प्राचीन काल मे मुनि और ऋषियों की तपस्या भंग क्यों हो जाती थी....क्योंकि ऐसा सौंदर्य जो स्वयं जगतपिता को अपनी ओर खींच लें.. 
   और शशिदेव्य तो सौंदर्य की साकार मूर्ति है... जो सम्पूर्ण चन्द्रमा की शीतलता और चांदनी और सौंदर्य को अपने अंदर लिये हुये है... और सम्पूर्ण दिव्यता से युक्त है.....तो ऐसी अप्सरा को प्रत्यक्ष देखना अपने आप में किसी सौभाग्य से कम नहीं था.......
     शशि..... जो प्रेमपूर्वक नाम है... उसने तो जीवन को दिव्यता से भर दिया था.... क्योंकि मैने प्रेम को पाना ही समझ था .....अपनी शक्तियों का अहंकार का कारण.ही मै झांसी से दूर हो चुका था.... और उसे अपने मंत्र बल से प्राप्त करने की ठान ली थी.. जब इस अप्सरा की साधना को किया.... तो मेरे अंदर परत गर परत उठने लगे... कि... प्रेम क्या है... और प्रेम और सौंदर्य का वास्तविकता क्या है.... क्योंकि प्रेम तो निश्चल है... जो हृदय सरोवर मे बहता है... प्रेम तो एक भाव है... जो पूर्णता की यात्रा पर अग्रसर कर देता है... प्रेम तो उस परमपिता तक पहुंचने का मार्ग है...... प्रेम तो माँ प्रकृति को समझने की कला है... उससे बाते करने की गुप्त कुंजी है... और मैं तो वासना मे था....जब वासना का परत हटी... तो समझ पाया प्रेम और झांसी के प्रेम मे खुल गया है.. यह तो शशि की अनुकम्पा है.... जिसने सही प्रेम से परिभाषित किया मुझे...... 
    शशि से ही जाना कि नारी वासना का पूर्ति के लिए नही है.... नारी तो  पूर्णता है... तंत्र की पूर्णता... जीवन की पूर्णता.... और सृष्टि जननी है... पुरूष के बीजरूपी वीर्य को गर्भ मे धारण करके एक नयी सृष्टि को... एक नये कमल को जन्म देती है... प्रेम की परिभाषा में है... नारी....
   परंतु हमारे समाज मे नारी के हृेयदृष्टि से देखा जाता है... उसके चरित्र पर उंगली उठाई जाती है..... क्योंकि हम लोग उन्हे कमजोर समझते हैं.....हमने तो ताकत का अर्थ लगा दिया है बाहुबल से........ अच्छे खाये मसल्स है....और ताकत वर है... और स्त्री के ऊपर जुल्म करते है......परंकु असल में मे हमसे अतित्याधिक तो वह स्त्री है...... क्योंकि उसमे सहनशीलता है.... सहन करने की शक्ति... हर दुःख को.. हर गम को... और संघर्षरत रहती है जीवन रूपी लडाई से.... तुम्हारी प्रतिताडना को सहन करती है... तुम्हारे दुर्व्यवहार को सहन करती है ....अपने गर्भ मे पल रहे बच्चे के भार को सहन करती है... हर पीडा को.हर दुःख को...... और तुम्हारी हर बात का मान रखती है... ताकि तुम पर उंगली न उठा सके लोग.... तुम्हारी मर्दानगी पर लोग उंगली न उठा सके... लोग.... और तुमने क्या समझा की वह लाचार है वेबस है.....वह लड नही सकती... और इसी बात का तुम फायदा उठाये है... और उसे जीवन भर प्रताडित  करते रहते है... दुनिया के नजर मे तुम अच्छे पति हो सकते है... पर घर की स्थिति किसे पता नहीं है... और वह स्त्री..... तुम्हारी इज्जत को बरकरार रखती है समाज मे.... पर क्या कभी आपने उससे प्सार से बात की..... जिस तरह से तुम परस्त्री से करते है... कभी उसकी तारीफ की... क्या.... क्या कभी उसे तोहफ़ा दिया.... क्योंकि तुम केवल अपने विचारों से चलते है.. सकुंचित सोच के लेकर..... 
   यहां मे उन स्त्री की स्थिति बता रहा हूं... जो पति को प्रेम लिए तडपती है... और उनकी प्रतिकाडना को सहती है.. 
   अप्सरा की साधना को करने से पूर्व तुम्हें अपनी शक्ति स्वरूप स्त्री,जिसे तंत्र मे भैरवी कहा..... है.... सहचरी कहा है... शक्ति तत्व  के अंश कहा है.... उसका सम्मान करना जरूरी... फिर बाहरी अन्य नारियों का सम्मान.... करना जरूरी.... क्योंकि अप्सरा तत्व शक्तितत्व की साधना.... नारी जगत की साधना है... प्रेमतत्व की साधना है... 
    शशि के कारण ही मुझे सब रहस्य ज्ञात हुआ हुये .....और मैं अपने आप को शर्म झुका हुआ महसूस कर रहा था... क्योंकि आज नारी की शक्ति का एहसास हुआ... और यह ज्ञात हुआ हुआ.... कोई भी साधना बिना प्रेम के सम्पन्न नहीं हो सकती है.....
   साधकों अप्सरा साधना करना अपने आप में ही सौभाग्य है....परंतु आजकल प्रत्यक्षीकरण बहुत कम साधकों को प्राप्त होते है... या यूं कहें कि सौ मे से एक ही विरला साधक प्रत्यक्षीकरण कर पाता है.... क्योंकि प्रत्यक्षीकरण का अर्थ है साकार........करना... 
   अपने समक्ष साकार रूप मे देखना.... परंतु साधकों.... यहां यह बात जानना भी जरूरी... है कि बिना गुरू के प्रत्यक्षीकरण साधना नहीं हो पाती है..... और सभी प्रकार की प्रत्यक्षीकरण साधना ने शक्तिपात दीक्षा जरूरी है...... ताकि ऊर्जा के विकास हो सके....तुम्हारे अंदर इतना सामार्थ्य होना चाहिए कि तुम उसे प्रत्यक्ष कर सके और देखने मे सक्षम हो सके...
  और प्रत्यक्षीकरण घर पर बैठकर अकेले नहीं कर सकते है.... इसमे गुरू का पल पल साथ रहना जरूरी है.... इसलिए किसी भी प्रकार के ढोंगी गुरू के अनुसार घर बैठे साधना न करे और न ही अपने धन को बर्बाद करें.. 
   और साधकों आप मरीज न हो... अप्सरा साधना दो प्रकार से की जाती है.... पहला समान्य रूप.....दूसरा प्रत्यक्षीकरण.... और हम यहां सामान्य रूप से साधना को सम्पन्न करेंगे.... जो घर रहकर कर सकते है... और इसमे दीक्षा की उतनी आवश्यकता नहीं होती है.. 
  सामान्य रूप से अप्सरा साधना करने से.... अप्सरा का प्रत्यक्षीकरण तो नहीं होता है... परंतु साधना से संबंधित लाभ अवश्य प्राप्त होते है....... अप्सरा साधना करने से साधक के अंदर प्रेमत्व का विकास होता है.... रस, सौंदर्य ता विकास होता है..... धन का वृद्धि.... संगीत, कला, और नृत्य आदि मे सफलता प्राप्त होती है.... चेहरे पर ओज और तेज आता है.... वाणी मे मधुरता आती है... ऐसा मानो की सम्मोहन कर देने वाली आवाज... जिसे सुनने मे आनन्द आता है.... मित्रता मे प्रगाढता आती है... घर मे सुख शांति का विकास होता है... कामतत्व का विकास होता है... और नारी के प्रति सम्मान की वृद्धि होती है..... पति पत्नी मे प्रेम का विकास होता है..... और उनका वैवाहिक जीवन आनंदपूर्ण रहता है......हर प्रकार की समस्याओं का समाधान होता है.. व्यवसाय मे वृद्धि होती है.... 
   अप्सरा साधना है ही इन सब तत्वों का लिए.... और शशिदेव्य तो सौंदर्य, प्रेम,रस,राग,और धन की साधना है.... सम्मोहन की साधना है... और स्वर्ग मे इस साधना का अपना ही एक विशिष्ठ स्थान है.... और पूर्ण स्वतंत्र अप्सरा है...... सौंदर्य इसे अत्याधिक प्रिय है..... और सौंदर्य की ये दीवानी है.... और प्रेम प्रणय की देवी है यह.... यह साधना करना अपने जीवन सौंदर्य का विकास करना....प्रेम मे प्रगाढता लानी है... और यह अप्सरा साधना सरलता से प्राप्त नहीं होती है.... और इस अप्सरा की साधना करना भी बहुत ही सौभाग्य की बात है..... क्योंकि हर अप्सरा साधना का अपना ही एक महत्वपूर्ण है महत्व होता है.... और इस अप्सरा का साधक सौंदर्य युक्त होता है....और सम्मोहन युक्त होता है... वाणी मधुरता.... सम्मोहन कर देने वाली.... जिसे सुनने की मन बार बार करता है.... यह अप्सरा साधक के मन मे कभी निराशा नहीं आने देती है..... और स्थिति मा उसे आशा युक्त रखती है...साधक का मन भी प्रसन्नता से युक्त  रहता है... 
    शशि..... अर्थात..... चंद्रमा..... और चंद्रमा तो मन का देवता है...शशि जिसके अनेक अर्थ है... शशि हिमकर, रजनीश, हिमांशु, चाँद, मयंक, विधु, सुधाकर, कलानिधि, निशापति, शशांक, चंद्रमा, चन्द्र....इत्यादि... 
    यदि देखे.. तो हिम के समान श्वेत... सुधाकर से युक्त हर कला से युक्त.... रात की रानी.... चंद्रमा की शीतलता से युक्त... सुन्दरता से युक्त.. चांदनी से युक्त.... कलाएं से युक्त देवी..... यदि आप इस अप्सरा के ध्यान को समझोंगे तो आप सच मे जान जायेंगे की यह अप्सरा कितना महत्व रखती है अपने आप में... 
 अति सुंदर तेजस्वी रुप कांति वाली अप्सरा है , जिसका मुख दिव्य आभा से चमक सा रहा है ...... जिसके तीक्ष्ण नेत्र हैं , मन को मुग्ध कर देने वाले उसकी मुस्कान है ..... उन्नत वक्षःस्थल और पूर्ण रूपेण यौवन से संपन्न अर्ध नग्न अवस्था में है ......
  अब सोचो कितनी महत्वपूर्ण साधना है.. यह जीवन की..... इसकी मुस्कान..... जो किसी के हृदय पर प्रेम का बाण छोड़कर मुग्ध कर देती है... ऐसी अप्सरा की साधना करना ही जीवन के अधोभाग है....... 
आप सब यह साधना करे... और आप सफल हो यही मेरी माँ चक्रेश्वरी और परमपिता सदाशिव जी के चरणों प्रार्थना है... 
  आप सबका अपना प्यारा सा 
निखिल ठाकुर...

Thursday, 2 March 2017

गुरू सुत्र


अत्यधिक लाड़-प्यार से पुत्र और शिष्य गुणहीन हो जाते है....
और ताड़ना से गुनी हो जाते है। भाव यही है कि शिष्य और पुत्र को यदि ताड़ना का भय रहेगा तो वे गलत मार्ग पर नहीं जायेंगे.........
   गुरू सूत्र.....
निखिल ठाकुर.....


साधना से पूर्व अपने मन को साधना के प्रति निष्ठावान बनाओ…. उसके करने के लिए तैयार करो, जब तक तुम किसी कार्य करने के लिए अपने अंदर प्रेम, जोश, साहस, आस्था, और निष्ठा का विकास नहीं करेंगे…. तब तक वह कार्य सौ बार करने पर भी… पूर्ण नहीं हो पाता है…. कार्य के प्रति जाग्रति होनी चाहिए… दिलचस्पी होनी चाहिये… जब कार्य मे मन, व दिल एकजूट होकर कार्यरत हो जाता है तो वह दैवीक रूप…. चमत्कारिक रूप पूर्ण हो जाता है… और साधना का मार्ग भी ऐसा ही है….
साधना सूत्र..
. …..निखिल ठाकुर…..

Tuesday, 21 February 2017


       अज्ञात रहस्यमय तंत्रों की खोज

           गुप्तसाधना तंत्र
      यह ग्रंथ हमारे शोध व अनुसंधान के अनुसार है… क्योंकि मैने उन गोपनीय योगियों के सान्निध्य मे रहकर उन प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन व साधनाओं को किया है…
बहुत समय मैं तंत्रों की खोज व अनुसंधान मे कार्य कर रहा था.. क्योंकि आजकल तंत्र के विभीत्स रूप को जनमानस के बीच मे स्थापित कर दिया है… कुछ तथाकथित तांत्रिकों ने.. और जनसाधारण को तंत्र के नाम पर लूटते रहे.. है… और लोगों के जीवन से खिलवाड करते रहे..
बचपन से ही मेरा मन तंत्र के प्रति आकर्षित था… और साधनाओं को प्रति रूझान धीरे धीरे अत्याधिक बढता गया आज मेरी तंत्र की यात्रा को पूरे नौ साल हो गये है. और तंत्र शोध मे अनेक बहुत से गोपनीय तथ्य को जाना है.. और प्रमाणिक ज्ञान को प्राप्त किया है… और साधनामय जीवन की तपस्या को पूर्णता का ओर ले जाने का प्रयास कर रहा हूं.. जो तंत्र का अनुभव मुझे हुआ है… उसे जाने से पूर्व मैं आप सबके मध्य रखना चाहता हूं… जिससे आप सब तंत्र के वास्तविक स्वरूप को जान सके और तंत्र को अपने जीवन मे उतार सके. और यह गुप्तसाधना तंत्र जीवन का बहुत उच्चकोटी का तंत्र ग्रंथ है… क्योंकि उसके अंतर्गत साधको को अनेक बहुत गोपनीय जानकारी प्राप्त होगी… और कौलाचार से संबंधित सही और प्रमाणिक जानकारी भी प्राप्ति होगी… जो मैने स्वयं कुलाचार से साधनारत समय प्राप्त की है…
और यह ग्रंथ मात्र साधकों के ज्ञान की वृद्धि और सही रूप से तंत्र को जानने के लिए प्रकाशित कर रहा हूं… और आज से दिनांक 20 फरवरी 2017 से इसका लेखनकार्य को मैं प्रारम्भ कर रहा हूं… और भविष्य मे इसको प्रकाशित किया जायेगा कृति के रूप… क्योंकि अभी यह अधूरा ग्रंथ है… और पूर्ण ग्रंथ का शोध जारी है… जहां 12 पटलों का शोध मैने किया है वहां तक लिखने का प्रयास यहां पर जरूर करूंगा..
और जो अनु
भव मेरे कुलाचार पर है उन्हें यहां पर व्याख्या के रूप मे प्रकाशित किया है.. ताकि साधक को सही जानकारी प्राप्त हो.. यदि फिर भी साधक के मन मे कोई भी प्रश्न उत्पन्न है… या कोई विषय समझ नहीं आ रहा है. तो साधक हमसे पत्र व्यवहार या ब्हट्सअप या ईमेल या फोन कर सकते है. ….और हमने अपना पता पहले ही लिखा दिया है.. यहां पे.
… आज के समय तंत्र अपनी ख्याति खोता जा रहा है…. प्राचीन समय मे तंत्र हमारे पूर्वजों के पास था… जिसमे यह अपनी चरम उच्च सीमा पे था. और पूज्यनीय था.. और आज के समय लोग तंत्र से घृणा करते है.. भय खाते है. क्योंकि इन सबके सामने तंत्र के ठेकेदारों ने तंत्र के गलत स्वरूप को प्रकाशित किया… और लोगों को तंत्र के नाम पे लूटते जा रहे है.. और भोले भाले लोग अपने जीवन को बर्बाद करते जा रहे और समय को भी. अपने धन को भी. .
आज का युवक तंत्र प्रति आकर्षित बहुत है.. केवल वशीकरण और सिद्धियों को लिए.. अधिकतर साधक यही कहते है कि गुरू जी हमे साधना बता दो… और दीक्षा दे दो… और हम सिद्धि को प्राप्त कर लेंगे.. कुछ तो यही कहते है कि गुरू जी क्या आपके पास सिद्ध मंत्र नहीं होते है… साधना कोई तमाशा नहीं…क्योंकि तुम साधना करने आये हो या तमाशा करने… साधना करनी है तो यह तमाशा बंद करना होगा… साधना मे साधना के प्रतिपादित नियम ही करेंगे… जो प्राकृत है.. इसलिए यह गुप्त साधना तंत्र बहुत ही महत्वपूर्ण है.. और उम्मीद करता हूं कि आपको यह तंत्र ग्रंथ पसंद आयेगा.. और आप सब इसे अपने जीवन मे उतारेंगे…. और साधना के क्षेत्र ने अपना एक कदम आगे बढायेंगे.. और मैं प्रार्थना करता सदगुरूदेवों व मांआदिशक्ति और परमपिता से आप सब तंत्र के सही रूप जान सके और अपने जीवन मे उतार सके..
प्रणाम
आप सबका अपना
निखिल ठाकुर…
                         अनुक्रमणिका
             प्रथम: पटल.. कुलाचार महात्म्य
            द्वितीय: पटल …तपस़्या एवं तीर्थ सेवा का फल
            तृतीय: पटल …पच्ञागोपसाना
           चतुर्थ: पटल….साधनोपय
           पंचम: पटल…पुरस्क्रिया
           षष्टम: पटल ….दक्षिणकालिका की आराधना विधि
           सप्तम: पटल…परमतत्व
          अष्टम :पटल…सिद्धारिचक्र
          नवम: पटल…धनदा देवी के मंत्र, पूजाविधि
          दशम: पटल.. मातांगी देवी के मंत्रादि
          एकादश: पटल..माला वर्णन
          द्वादश: पटल… परमाक्षरी गायत्री

            गुप्त साधना तंत्र  
            प्रथमः  पटल
        कुलाचार महात्मय
कैलालशिखरे रम्ये नानारत्नोपशोभिते |
तं कदाचित सुखासिनं भगवन्तं त्रिलोचनम् ||
पप्रच्छ परया भक्तया देवी लोकहिते रता ||1||
एकदा भगवान त्रिलोचन नानारत्नोपशोभित मनोहर कैलासगिरी ~शिखर पर सुख से उपविष्ट थे, उसी समय देवी पार्वती ने लोक के हित ~साधन करने के मानस से परम भक्तिपूर्वक देवादिदेव महेश्वर से जिज्ञासा की ||1||
सम्पूर्ण तंत्र ग्रंथ मे भगवान शिव और माँ आदिशक्ति की वार्ता है… और माँ ने जनकल्याण के लिए भगवान से तंत्र ज्ञान को उजागरत करने की जिज्ञासा की… … और प्रेमवशीभुत भुतबाबन ने जग कल्याण के लिए तंत्र ज्ञान को प्रकाशित और माँआदि शक्ति को दिया…. जितने भी तंत्र ग्रंथ बने है उनके भैरव भैरवी संवाद, शिव पार्वती संवाद है… और सभी तंत्र ग्रंथ मे सही रूप से ज्ञान को इस धरा पर प्रकाशित किया है… पर कालांतर मैं तंत्र अपनी महिमा को खोता जा रहा है… कारण कुछ भीत्स तांत्रिकों के कारण… जिन्हे तंत्र का सही ज्ञान नही और अपने आप को सिद्ध मान बैठे है… तो आज मैं निखिल ठाकुर उन सभी गुप्त तंत्रों को फिर से जनमाना के मध्य लाने की प्रयास. कर रहा हूं… जो उन प्राचीन योगियों के पास सुरक्षित है… और जहां तक मेरा प्रयास और अनुसंधान पहुंचा है… वहां तक दो दो ग्रंथ मेरे हाथ मे लगे है… जिनका ज्ञान मुझे उन गुरूओं से प्राप्त हुआ जो अपने आप मे उच्चकोटी के है.. तो उसी ज्ञान को आज यहां सार्वजनिक कर रहा हूं… और जहां तक मेरा अध्ययन और प्रयास है मै वहां तक सही रूप से ज्ञान को आगे प्रसारित करने की कोशिश करूंगा…
गुप्त साधना तंत्र …..साधनात्मक जगत का बहुत ही उच्चकोटी का तंत्र है.. और इस तंत्र ग्रंथ मे 12 पटल है… पहला पटल कुलाचार महात्मय का है… और इसी तरह से 12 पटलों मे साधना से संबंधित अनेक तथ्य को साधकों के लिए इस तंत्र मे वर्णित है… जिन्हे हम धीरे धीरे समझेंगे…
यहां पर माँ सदाशिव से भक्तिपूर्वक लोक के हित साधन करने की जिज्ञासा को व्यक्त की है… और कहा कि हे देव आप मुझे उस तंत्र को कहो मुझसे जिससे जनमाना अपने आप का हित कर सके और सिद्धियों को प्राप्त कर सके..
श्रीदेव्युवाच —
 देवदेव महादेव लोकानुग्रह कारक |
कुलाचारस्य माहात्म्यं पुरैवसूचितंत्वया ||2||
देवी ने कहा —
हे देवदेव! आप देवतागणों मे श्रेष्ठ हैं एवं सर्वदा समस्त लोकों के प्रति सातिशय अनुग्रह को प्रकट करते हैं | हे नाथ आपने पहले कुलाचार के महात्म्य का प्रकाशन किया है..||2||
माँ ने कहा कि हे देवादिदेव आप तो सबसे से श्रेष्ठ… देवताओं मे भी सर्वश्रेष्ठ है… और सदा सभी लोकों के प्रति उदार, कल्याणकारी और सभी से प्रेम दया करते है… अपना आभार प्रकट करते है… हे नाथों के नाथ.. आपने ही तो पहले कुलाचार के रहस्य को उजागरत किया था… और उसे जनकल्याण के लिए प्रतिपादित किया… है…
यहां पर मां कुलाचार के रहस्य को पुनः उजागरत करना चाहती है.. कुलाचार सभी के लिए एक रहस्य बना है.. और साधक कुलाचार से भय खाते है… और अपने आप को उससे दूर से जाते है… पर कुलाचार है क्या…. कभी समझने की कोशिश नहीं की… पहले तो मेरी भी धारणा कुलाचार के प्रति गलत थी… जब मैने कौलाचार मे प्रवेश किया…. और साधनारत रहा और साधनारत हूं तो मेरे अंदर जो भ्रांतिसाॉ थी वो स्वतः धीरे धीरे दूर हो गई.
गुरू जी ने कौलाचार के विषय मे बताया कि…… कौलाचार असली नाम नही है…… बल्कि तंत्र मे इसे कुलाचार या कुलमार्ग कहते है… और कुलाचार का अर्थ है अपने कुल के अनुसार आचरण करना है… जिसप्रकार से तुम्हारे पिता है… और उनके पिता अर्थात आपके दादा कुलाचार्य हुये.. क्योंकि उन्हीं के अनुसार तुम्हारे कुल का विस्तार हो रहा है… और आगे फिर तुम और तुम्हारे बच्चे. जो आपके अनुसार प्रतिपादित नियमों का पालन करते हुये जीवनयापन करते है.. तो उसे कुलाचार कहते है… और इस तंत्र ग्रंथ मे कौलाचार का सही नाम दिया है कुलाचार…… और माँ ने कहा कि आपने पहले कुलाचार पद्धति का विकास किया है… उसके रहस्य का सृष्टि मे प्रकाशित किसे है..
 तत् कथं गोपितं देव मम प्राणेश्वर प्रभो |
कथयस्व महाभाग यद्यहं तव वल्लभा ||3||
हे प्राणेश्वर! इस समय उस कुलाचार (कौलाचार) के माहात्म्य को क्यों गोपित (गोपनीय) कर दिया है? हे! देवेश्वर उसे मेरे निकट बतावें | हे महाभाग! यदि आप मुझे प्राणवल्लभा रूप में जानते हैं, तब इस समय मेरे निकट उस गोपनीय कुलाचार महात्म्य को प्रकाशित करें..
मां ने परमपिता से कहा कि पहले तो आपने कुलाचार को प्रकाशित किया… और उसके माध्यम से सृजन आदि क्रिया को पूर्ण किया और अब आपने उसे गोपनीय कर दिया… गुप्त से गुप्त कर दिया…यह तो सत्य है कि कौलाचार एक गोपनीय मार्ग है.. .जिसमें साधना गुप्त रूप से सम्पन्न होती है… और आज तक कौलाचार जनमानस के मध्य नहीं आया पाया है.. और अधिकतर आज के समय साधकों ने इस मार्ग को समझने या जानने की कोशिश नहीं की है… और जिन्होंने इस मार्ग मे निष्णात प्राप्त की है तोअपने आप कही चुपचाप शांत व आनन्दमय से साधना मे लीन है… संलग्न है. ..
माँ ने यहां पर परमपिता से कहा कि आप उस गोपनीय पद्धति के मुझे बताये.. कि कौलाचार क्या है.. यदि मैं आपकी प्राणप्रिय हूं… या आप मुझे अपने प्राणेश से अधिक प्रेम करते है तो हे… महाभाग आप मुझसे इस गोपनीय ज्ञान को कहें.. माँ ने जनकल्याण की भावना से महादेव से यह प्रार्थना की…
और आज कौलाचार से संबंधित जो कुछ ज्ञान है वे केवल योगियों के पास सुरक्षित है… और आज भी यह ज्ञान गुप्त है.. कौलाचार मार्ग ब्रह्म को जानने के मार्ग है.. ब्रह्मवेता होने का मार्ग है… ब्रह्म मे स्थित होने का मार्ग है… और सृष्टि के समस्त गुढ रहस्यों को जानने मार्ग है.. और वैरभाव से अपने आप को हर स्थिति मे कायम रखने का मार्ग है.. कौलाचार पद्धति से यदि साधक की दीक्षा हो जाये… तो वह साधक ज्ञान के एक नये तंतुओं से जुड़े जाता है.. और धीरे धीरे जीवन मे वह साधना के उच्चतम शिखिर पर पहुंच जाता है.. और उस साधक पर कोई शक्ति का प्रहार असर नहीं करता है… चाहे वह मारण हो… या अन्य… यह मेरा स्वयं की अनुभव है..
क्रमशः
सिद्धहिमालय सिद्धपीठ


……..गुरू मेरो जोगी निराला…
… गुरू और शिष्य का सत्य
अधिकतर लोग मुझसे कहते है…कि निखिल जी हमें…किसी योग्य गुरू का पता बता तो…पर…यह बात कहना शोभा….है…उनको…क्योंकि जो स्वयं ही गुरू का तयन नहीं कर सकता …स्वयं यात्रा पर नही चल सकता है…उसे गुरू प्राप्त होने के बाद ही वह सही कहेगा..कि …..यह गुरू मुझे योग्य नहीं लगा…और मन केवल संशय और संशय ही उसकी यात्रा में बाधा बनकर उभरता रहता…खडा रहता है….इसलिए मेरे तंत्र प्रेमियों….मेरे प्राण प्रिय आत्मनों…मेरे तंत्र सहयोगियो….व मित्रो….गुरू का चयन तुम्हे करना है…वहां तक पहुंचने का मार्ग स्वयं प्रशस्त करना है….तुम्हे…इसलिए तुम यह कार्य किसी पर मत थोपो….मत डालो…स्वयं करो…और सत्य को अनुभव करो…दुसरे के अनुभव को सुनकर तुम अनुभव नही कर सकते है..नही दान सकते है..उसकी भुमिका व कठिनाईयो…को….जब तक स्वयं नहीं करेंगे..तब तक मात्र तुम जडमत ही बने रहेंगे….
सबसे महत्वपूर्ण तथ्य. ..यह है कि… गुरू का चुनाव शिष्य नहीं कर सकता है… क्योंकि शिष्य केवल अपनी बुद्धि के अनुसार ही चयन करते हो… क्योंकि तुम्हारी चेतना उस तत्व को नहीं पहचान सकती है… नहीं जान सकती है. ….क्योंकि गुरू को जानना, पहचानना कोई सरल कार्य नहीं है.. क्योंकि गुरू एक तत्व है… कोई शरीर का पुर्जा नहीं… यह तुम्हारी गलती है… कि तुम गुरू को केवल शरीर मान लेते हो…
गुरू और शिष्य बनाये नहीं जाते है.. वे तो केवल समर्पण से ही बन जाते है… और गुरू की चयन करता है शिष्य का.. कि वह योग्य है.. या नहीं… क्योंकि शिष्य यह चयन कर सकता है.. कि गुरू योग्य है कि… नहीं…
क्योंकि यदि तुम फैसले ले सकते हो… तो…. फिर तुम्हें गुरू की आवश्यकता ही क्यों… तुम तो स्वयं ही हर फैसले के निर्णय लेने मे समर्थ हो… और स्वयं ही हर फैसले का आंकलन करते हो… और गुरू को खोजने लग जाते है… और उसे अपने ही आंकलन अनुसार ही तोलने लगते हो, परखने लगते हो… और बुद्धिमान मान बैठे हो… और तुम्हे गुरू नहीं… बल्कि अपने अनुसार कार्य करने वाला व्यक्ति चाहिए… क्योंकि गुरू अलग ही तत्व है.. अलग ही ऊर्जा है…
तुम मे पात्रता नहीं है कि तुम चुनाव कर सकते हो… तुम चयन कर सकते हो.. तुम्हें जब यह ही मालुम ही नहीं है कि तुम्हारे लिए क्या सही है… क्या सही नही है.. क्सा गलत है.. कौन वस्तु तुम्हारे योग्य है. .तो फिर गुरू का चयन किस तरह कर सकते है..
बचपन से लेकर तुम्हारे लिए ही तुम्हारे मां बाप ने हर वस्तु का चयन किया है.. क्योंकि उन्हें ज्ञात है कि तुम्हारे लिए क्या सही है क्या गलत है……यह तुम निर्णय नहीं ले सकते हो… क्या तुम अपने मां बाप के निर्णय ले सकते है. .क्या तुमने यह निर्णय लिया की जो तुम्हारे मां बाप है… वे तुम्हारे योग्य है कि नहीं… क्योंकि तुम केवल अंधेरे को ही चुन सकते है.. प्रकाश को नहीं.
तुम्हारे स्थिति ही ऐसी है.. क्योंकि जब तुम अपने मां बाप के निर्णय के विरोध करते है,तो क्या होता है… कि अंत मे तुम थककर हारकर उन्हीं के पास लौट आते है. और गलती का अफसोस करते हो.. जिन मां बाप ने बचपन से तुम्हारे पक्ष मे निर्णय लिये है… तुम्हारे हित मे लिये है.. क्योंकि वे निष्पक्ष होते है. तुम्हारी खुशी चाहते है.. तुम्हे खुश देखना चाहते है..
यही स्थिति गुरू और शिष्य की. .मैं तो टूक शब्द ठोक के बोलता हूं कि शिष्य कभी भी गुरू का निर्णय नहीं ले सकते है कि… ये गुरू मेरे योग्य है कि नही… तुम निर्णय लेने योग्य होते है तो तुम्हे फिर किसी की सलाह की आवश्यकता नहीं होती और न किसी आंकलन की. तुम निर्णय लोगे.. अपनी बुद्धि के अनुसार, अपनी परिधि के अनुसार, क्योंकि तुम केवल निर्णय ले सकते हो अपनी क्षमता के अनुसार, अपनी योग्यता के अनुसार…. जितनी तुम्हारी सोच है… तुम्हारी क्षमता है.. योग्यता है..
यही सभी कारण है कि तुम सही गुरू की बजाये तुम पाखंडी, ढोंगी गुरू को अपना गुरू बना बैठते है.. तुम यह निर्णय अपनी योग्यता के अनुसार ही लेते है.. और तुम यही निर्णय लेते है कि तुम्हारे लिये क्या सही है, क्या गलत है, कौन साधना करनी है कौन नहीं, और वे गुरू भी वैसे होते है, और तुम्हारे ही अनुसार ही कार्य करते है,…इसी को तो कहते है….
“”””””गुरू घण्टाल “””” और शिष्य अपनी मौज करता रहता है. …..जब अंत समय आता है…. त६ तुम आड में बैठे होंगे….. कि गुरू अब देंगे.. कुछ न कुछ देंगे….क्योंकि जो गुप्त चीज है उसे अब देंगे… अंत समय है. साथ लेंगे थोडा जायेंगे.. और वे गुरू भी अंतिम समय यही सोचते है… कि मैने तो जीवन मे कुछ किया ही नही और जीवन भर शिष्य के ईशारों मे नीचता रहा और अब भी ये मुझे अपने ईशारे मे नचा रहे है… …क्या ये गुरू है.. गुरू का निर्णय शिष्य नहीं ले सकता है….. बल्कि गुरू ही शिष्य का निर्णय लेता है..

जिस तरह से माटी का निर्माण कुम्हार करता है… तो उसी प्रकार से गुरू भी शिष्य का निर्माण करता है… बल्कि शिष्य नही… और ना ही माटी कुम्हार का.. यदि मिट्टी कुम्हार के अनुसार ही बनने को तैयार होती है.. अपने आपको उसके हाथों मे सौंप देती है.. तो तभी कुछ बनकर आती है.. और मूल्यवान व सुन्दर बन जाती हैं… मिट्टी को फ्र व सब कुछ सहन ही करना पडेगा…. कुम्हार उसके पीटेगा, गुंथेगा, घुंसे मारकर कर… और उसका निर्माण करता है.. और भीतर से सहारा देता है और बाहर से चोट मारता…. तब जाके कुछ बनकर आती है वह, तब जाते उसकी कीमत बढती है.. ठीक गुरू भी इसी तरह से क्रिया करता है.. शिष्य का निर्माण करता है..
यदि मिट्टी कुम्हार से कहे तो मुझे इस तरह से बना… और इस तरह से निर्माण कर… तो क्या फिर मिट्टी कुछ बन जायेगी.. नहीं न… तो कुम्हार क्या करता… कुम्हार ऐसी मिट्टी को इक्ट्ठा करके किसी गंदे गढ्ढे में डाल देगा… क्योंकि उसकी जगह ही वोही है…क्योंकि यह निर्णय तो कुम्हार ही लेगा की मिट्टी का निर्माण किस तरह से करना है… न यह निर्णय मिट्टी नहीं लेगी….. कि उसका निर्णय किस तरह से होना चाहिए….और मिट्टी यह निर्णय नहीं ले सकती है… कि उसका निर्माण किस तरह से होना चाहिए..या यह कुम्हार उसका निर्माण सही रूप से कर पायेगा…… क्योंकि इसका निर्णय लेने की योग्यता मिट्टी के अंदर नहीं है.. और न हो भी सकती है… यह निर्णय केवल कुम्हार ही लेगा की मिट्टी का निर्माण किस तरह से करना है.. किस तरह से उसका उपयोग करना है… मिट्टी को स्वयं के उपयोग का ज्ञान नहीं है.. वह तो केवल कुम्हार को ही है.. क्योंकि वह उसका निर्माणक है, उसका गुरू है… वह ही निर्णय ले सकता है कि मिट्टी किस योग्य है.. और किस तरह से उसका सहीं उपयोग करना है..
ठीक यही स्थिति गुरू और शिष्य की है… आजकल के शिष्य भी मिट्टी की तरह है… जो सारे निर्णय स्वयं लेता है… और उसका हाल मिट्टी की तरह होता है…..जो उस गड्ढे मे पडी है..क्योंकि मिट्टी को तो कुम्हार पर पूर्ण रूप से विश्वास करना है… उसके प्रति समर्पित होना ही पडेगा… बिना किसी उपेक्षा के… एक दम खाली…जब पात्र खाली होगा तो तब ही उसमें कुछ भर सकता है..
अन्यथा वोही स्थिति होगी जो मिट्टीकी है.. जो गढ्ढे मे पडी है.. शिष्य का निर्णय गुरू ही लेता… है… गुरू ही शिष्य बनाता है… बल्कि शिष्य. नहीं… शिष्य की बुद्धि इतनी नहीं है कि वह गुरू का चुनाव कर सके.. गुरू का निर्णय ले सके…..यदि शिष्य मे पात्रता है तो गुरू स्वयं ही शिष्य को अपने तक पहुंचने का मार्ग प्रशस्त कर देता है.. क्योंकि तब गुरू पूर्ण ऊर्जा के साथ अपने शिष्य को अपनी ओर खींच लेता है… और शिष्य तो इसी भ्रम में रहता है कि हमने यात्रा की है गुरू तक पहुंचने की… गुरू को खोजने में.. और जब तक शिष्य अपनी नकारात्मकता को छोड़ने नहीं देता है तब तक गुरू प्रहार करता रहता है…..कुम्हार की तरह… जो मिट्टी की नकारात्मकता को गूंज और पीट पीट कर दूर करता है.. और गुरू ज्ञान के सहारे ही दूर करता है..
इसलिए मैं कह रहा हूं कि तुम केवल खाली रहो…. भरे हुये नहीं… तुम खाली हो तो प्रकृति तुम्हे भरने के पूरी कोशिश करती है… तुम खाली रहो…. पांडित्य तो केवल भरा हुआ ज्ञान है….. यह वह ज्ञान है जिसमें उनका अपना कोई अनुभव नहीं है… और न ही शोध…. केवल रटा रटाया ज्ञान…. जो अनंत काल से चलता आ रहा है… और आगे चलते रहेगा… क्योंकि वे सब जानकारी पहले से ही मौजूद है… हमारे समक्ष… बस हमने केवल अध्ययन किया… और अध्ययन करके अपने ही अनुसार व्याख्या कर दी है… और अनुभव है ही नहीं.. क्योंकि तुमने उसके स्वाद को नहीं चखा है… और तुमने उसे अपना मान लिया है.. ठीक उसी प्रकार से… जिस प्रकार जिसने शहद के स्वाद नहीं लिया है… और वह उसे परिभाषित कर रहा है.. और उसे क्या पता कि शहद मीठा है या कडवा है… मिठा तो है यह सबने सुना है… पर खाने में कैसा है… कैसा अनुभव है.. यह ज्ञात नहीं है.. यह तो वोही जानता है जिसने उसका स्वाद चखा हैै…. अनुभव किया है… और समाज की हालात ही ऐसी है… यहां पर सभी दूसरे के स्वाद को अपना स्वाद कह देते है.. अपने अनुभव बताते है.. और व्याख्या कर देते है.. पांडित्य तो अहंकार है……भ्रम… क्योंकि ज्ञान से जानकारी की वृद्धि होती है़ और जानकारी से भ्रम…
और लोग भ्रम रूपी ज्ञान ले कर ही समाज मे अपनी व्याख्या करते रहते है… और अपने आपको यह मान लेता है कि उसके अब कुछ प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं है… क्योंकि मैं सब कुछ जानता है… पर इसी सब कुछ के कारण वह दूसरो को भी अंधेरे में रखता है और स्वयं को भी… और आजकल शिष्य तो यही चाहते है कि गुरू जी है… बस सबकुछ हो जायेगा.. मुझे करने की जरूरत नहीं है… गुरू जी तो स्वामी है.. वह है… मुझे तो केवल गुरू जी के पास बैठना है… और गुरू जी मुझे यह साधना चाहिए…. वह है… मुझे तो केवल गुरू जी के पास बैठना है… और गुरू जी मुझे यह साधना चाहिए…. पर मुझे करना कुछ नहीं है… और बिना करें यह सिद्धि प्राप्त हो जाये……. और वे गुरू भी कहते है कोई बात नहीं बेटा. .बस अनुष्ठान कर लेंगे हम तेरे लिए और तुझे मां सिद्ध हो जायेगी…..बस बेटा तीन अनुष्ठान करने होंगे..हर एक एक अनुष्ठान मे कम से कम दस से बीस हजार खर्च आ जायेगा…….. और शिष्य सोचत़ा है कि बस सिद्धि प्राप्त हो जायेगी और पैसे दे देता है. तीन अनुष्ठान करने के बाद भी जब कुछ नहीं होता है तो… गुरू के पास चला जाता है.. और कहते है गुरू जी कुछ अनुभव हुये ही नहीं.. तो गुरू जी रहता है बेटा कल आ जाना ज मे समाधि मे जाकर पता करूंगा…….. अगले दिन आता है… तो गुरू कहता है कि मां कह रही है कि तुममें पात्रता नहीं है…..तुम मे योग्यता नहीं है… तो शिष्य रहता है गुरू जी फिर क्या करना होगा… कुछ नी बेटे एक अनुष्ठान करना होगा… बस कम से कम 50 हजार खर्च आयेगा..
यहां पर तुम शिष्य भी गलत और वह गुरू भी…. दोनो पाखंड को बढावा दे रहे है…यदि भगवान ने तुम्हे बुद्धि दी हो तो उसका प्रयोग करना जानते हो तो… तुम इस तरह के पाखंड को बढावा नहीं देते… क्योंकि
………पहली बात कि दुनिया भी कोई भी गुरू ऐसा नहीं है कि जो तुम्हें बिना कुछ क्रिया किये सिद्ध बना दें…. और न ही किस के अंदर यह क्षमता है… यह केवल तंत्र के गुरू आदिदेव महादेव के पास है… जो गुरू इस तरह का दावा करता है तो वह धोखे बाज है…
दूसरी बात उन गुरूओं को जो यह कहते है कि मां कह रही है तुम में योग्यता का नहीं है… तो यदि तुम क्रिया कर रहे है… तो तुम मुझ योग्य बना सकते है… उसके योग्य… जिससे सिद्धि प्राप्त हो सके… और ये गुरू ऐसे होते है कि मानो सारी सिद्धियां इनके वश में… और इनका प्रभुत्व है इनके ऊपर ये जहां भेंजगे वहां जायेगी… ये तो प्रकृति को अपनेअनुसार चला सकते है… तो फिर इस सृष्टि को ब्रह्मा की जरूरत ही नहीं होनी चाहिए…
तुम ऐसे शिष्य हो… जो अपने अनुसार निर्णय लेकर इस प्रकार के गुरू का चुनाव कर सकते है… और इसी तरह से जीवन में चुनाव करते रहते है.. इसलिए हर बार कह रहा हूं कि शिष्य में पात्रता नहीं है कि वे गुरू का चुनाव कर सके… केवल गुरू ही शिष्य का चुनाव कर सकता है.. यही रहस्य है गुरू और शिष्य का और पाखंड…
तुम केवल खाली रहो. ……साक्षी भाव बने रहो… दो हो रहा है… गुरू जो करवा रहा है…. बस नामित माध्यम बनकर करते रहे हो. ….सबकुछ तुम्हे प्राप्त होता रहेगा… क्योंकि गुरू ही निर्णय लेगा कि तुम्हे क्या देना चाहिए क्या नहीं..
यही सृष्टि और आगामशास्त्रों का ज्ञान है… और सत्यता है… और वेद का ज्ञान है…
प्रणाम
तुम सबका हितार्थी….
निखिल ठाकुर…..